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Showing posts from October, 2020

कर्म-बंधः क्यों और कैसे - 1

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज कर्म-बंधः क्यों और कैसे - 1 महानुभावों, कर्म जीवात्मा में चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर चिपक जाते हैं। जीव की अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रिया द्वारा अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग द्वारा प्रेरित होकर राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति के प्रति चुम्बक की तरह आकृष्ट आत्मा जो कार्य करता है वह कर्म कहलाता है। मुनि श्री कहते हैं कि वे ही कर्म जीव में चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर चिपक जाते हैं।  कर्म के दो भेद हैं - द्रव्य कर्म और भाव कर्म।  जीव में राग-द्वेषादि परिणामों के निमित्त से आकृष्ट होकर जो कर्म-परमाणु आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह घुल-मिल जाते हैं, वे पुद्गल परमाणु द्रव्य कर्म कहलाते हैं और उनके निमित्त से आत्मा में जो राग-द्वेषादि विकारात्मक संकल्प पैदा होता है, उन्हें भाव कर्म कहते हैं। आत्मा के मुख्यतः आठ गुण हैं और उनको आवृत करने वाले कर्मों के भी आठ भेद हो जाते हैं। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय।  इनमें ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं और शेष चार अघातिया कर्म हैं। ...

कर्म बंधः कैसे

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज कर्म बंधः कैसे प्रायः सामान्यजन की धारणा होती है कि धर्म विरूद्ध कार्य करने से ही पाप कर्म का बंध होता है पर उनका यह ज्ञान अधूरा है। लोग कहते हैं कि हमने तो किसी को नहीं मारा तो हमें पाप का बंध कैसे होगा ? अरे भाई! तुमने तो नहीं मारा पर जब दूसरा आदमी उसे मार रहा था, तब तो तुमने उसे कहा था न कि अच्छा है, और मारो। तुम स्वयं तो मारने नहीं गए पर दूसरे को भेज दिया अपने स्थान पर कि मैंने तो नियम ले रखा है। मैं किसी की हिंसा नहीं करूँगा पर मैं उस जीव से, चाहे वह चींटी या दीमक ही क्यों न हो, उससे बहुत परेशान हूँ। तुम उनसे छुटकारा दिलाओ। फिर कहते हो कि मुझे पाप नहीं लगा। पाप कर्म हो या पुण्य कर्म, इनका बंध तीन प्रकार से लगता है - कृत अर्थात् स्वयं करना, कारित अर्थात् किसी से करवाना और अनुमोदना अर्थात् करने वाले का उत्साह बढ़ाना। अब चाहे वह दान-पूजा का काम हो या हिंसा-झूठ आदि का काम हो। एक व्यक्ति मनोरंजन के लिए टी.वी. देख रहा है। यदि वह केवल मनोरंजन के लिए देख रहा है वहां तक तो ठीक है पर यदि वह अपनी भावनाओं को भी उसमें शामिल कर लेता है तो उसके कर्म बंध होकर ही र...

ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 5

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 5 एक स्थान पर बैठे-बैठे ही यंत्र का केवल एक बटन दबा कर करोड़ों मासूमों का नरसंहार कर डालने की क्षमता का विकास ऐसे ही शिक्षित लोगों ने किया है। जो शिक्षित तो थे पर दीक्षित नहीं थे, आज वही लोग इन साधनों का अविष्कार करके पछता रहे हैं कि न जाने कौन इनका दुरुपयोग कर बैठेगा और मानव जाति को विनाश के गहरे गर्त में धकेल देगा।  परमात्म तत्व में दृढ़ विश्वास और साकार सद्गुरु के प्रति अटूट भक्ति जीवन में सुख, शांति और दिव्यता का प्रकाश भर देती है। शांति पाने के लिए जितनी सहज निर्मल बुद्धि आवश्यक है, उतनी अन्य किसी विशेष योग्यता या बाह्य आडम्बर की आवश्यकता नहीं है। इस दुनिया में दो प्रकार के लोग मनुष्य के रूप में ईश्वर की उपासना नहीं करते। एक तो वे मनुष्य जिन्हें धर्म का कोई ज्ञान ही नहीं है। ऐसे लोग आहार, निद्रा, भय, मैथुन के अलावा अपना कोई और कर्त्तव्य ही नहीं समझते और न ही उन्हें समझने की जिज्ञासा है। दूसरे वे जो परमहंस हैं। वे मानव जाति की सारी दुर्बलताओं से ऊपर उठ चुके हैं। अपनी मानवीय प्रकृति की सीमा से परे चल...

ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 4

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 4 ईश्वर के स्वरूप के बारे में चाहे कोई कितनी ही लंबी-चौड़ी बातें करे, अपनी कल्पना और भावना को कितना ही विस्तृत करे, वह अपनी कल्पना और भावना से आगे नहीं जा सकता। चाहे कोई ईश्वर व संसार पर कितना ही लंबा चौड़ा विद्वत्तापूर्ण वक्तव्य दे डाले, बहुत बड़ा युक्तिवादी बन कर ईश्वरावतार का खंडन करे, उपासना की अर्थहीनता को सिद्ध करे; किन्तु यह सब केवल शब्दों का ढेर, बुद्धि की कसरत मात्र रह जाएगा। किसी को अवतार और उसकी उपासना के विरूद्ध अपनी डुगडुगी बजाते हुए देखो तो उसके पास जाकर खोजना कि परमात्मा के विषय में उसकी क्या धारणा है ? निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आदि शब्दों के लक्ष्यहीन शब्दों के सिवाय उसे न तो कोई ज्ञान है और न ही अनुभूति। वास्तव में वह कुछ नहीं समझता। उन बड़े-बड़े शब्दों के विषय में उसकी अपनी मानुषी प्रकृति प्रभावित हुई हो, ऐसा कोई अनुभव उसके पास नहीं है। इस तथ्य में तो उसमें और एक राह चलते अनपढ़ गंवार में कोई भेद नहीं है। यदि कोई भेद है भी तो केवल इतना ही कि वह गंवार कम से कम शांत तो रह सकता है, संसा...

ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 3

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 3 करुणा ही उनकी जीविका है, प्रेम ही उनका श्वास है। मानव देह में विराजित परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति के माध्यम के बिना कोई भी व्यक्ति परमात्मा के दर्शन नहीं कर सकता। यदि हम अपना मन बना भी लें कि हम किसी अन्य तपस्या की सहायता से परमात्मा के दर्शन करने का प्रयत्न कर लें तो हम अपने मन में परमात्मा की एक काल्पनिक छवि घड़ लेते हैं और उसे ईश्वर के समकक्ष बैठा कर अपने मन में परमात्मा के दर्शन करने का प्रयास करते हैं।  उस काल्पनिक रूप की पूजा, उपासना और उसके साथ तादात्म्य करने में लग जाते हैं। इस भयानक ख़तरे से बचने के लिए ईश्वर की उपासना मनुष्य के रूप में की जा सकती है और मानवता में व्यक्त की जा सकती है। मानवता में व्यक्त ईश्वरत्व को सद्गुरु के रूप में माना जा सकता है।  यह त्रिकालिक व हितकारी सत्य है। यह कुदरत का कानून है कि यदि आज हम उसे ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे तो कल छूरे की नोक पर हमें उसको ईश्वर के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। हम मनुष्य हैं इसलिए मनुष्यत्व की मान्यताओं में अपने आपको ज...

ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 2

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप -  2 सद्गुरु केवल स्पर्श से, प्रसाद के आदान प्रदान से, कथन से, दृष्टिपात से, यहाँ तक कि संकल्प मात्र से ही घोर नास्तिक को भी आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा मात्र से पतित से पतित व्यक्ति भी तुरंत साधु स्वभाव का हो जाता है। ऐसे हैं वे गुरुओं के भी गुरु। वे मानव देह में विराजित, मनुष्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अभिव्यक्ति हैं। उनके माध्यम के बिना, उनकी करुणा, कृपा, कटाक्ष के बिना, हर कदम पर मिलने वाली सहायता के बिना, हम अन्य किसी भी कठोर प्रयत्न व उपाय का आश्रय ले कर परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। वास्तव में वे ही हमारे लिए परमात्मा के समान हैं। इस संसार सागर में वे कमंडल भर एकमात्र भगवद् स्वरूप हैं जिनकी कल्याणकारी, मोक्षप्रद उपासना हमारे लिए प्राणवायु के समान है जिसके बिना हम जीवित रह ही नहीं सकते। हम उनसे प्रेम करने के लिए विवश हो जाते हैं क्योंकि वे अनंत प्रेम के भंडार हैं, सुख के दरिया हैं, आनंद के सागर हैं। ओऽम् शांति सर्व शांति!!

ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप - 1

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु : ईश्वर का साकार स्वरूप -  1 महानुभावों! जिस स्थान पर परमात्मा के गुणों का श्रवण होता है, कीर्तन और गुणानुवाद होता है, वह स्थान पवित्र हो जाता है। उस स्थान को तीर्थ की संज्ञा दी जाती है। वहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का मन पावन और पवित्र हो जाता है। जब भगवद् गुणानुवाद से वह स्थान तीर्थत्व को प्राप्त हो जाता है तो शुद्ध मन से भगवान के गुणों का गान करने वाला कितना पवित्र होगा और जिसकी आत्मा में भगवत् तत्व प्रगट हो गया हो, उस की पवित्रता कितनी उच्च कोटि की होगी, इसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। ऐसे महान गुरु सब के लिए मंगलकारी होते हैं। जिनसे हमें आध्यात्मिक शिक्षा मिलती है, हमारी आत्मा की उन्नति होती है, असीम आत्म-शांति मिलती है, उनके समीप जाते हुए हमारे भीतर स्वयं ही अति विनम्रता और भक्ति के भाव जागृत होने लगते हैं। संसार में ऐसे वंदनीय उत्कृष्ट गुरुओं की संख्या अति अल्प है। उनका सामीप्य केवल पवित्र स्थानों पर ही उपलब्ध हो सकता है, सर्वत्र नहीं। तथापि यह धरा ऐसे महापुरुषों से सर्वथा शून्य नहीं है। वे मानव जीवन के सुंदरतम सुरभि-यु...

स्वयं को पहचानें

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज स्वयं को पहचानें एक गर्भवती शेरनी जंगल में विचरण कर रही थी कि अचानक आकाश में बिजली चमकने लगी और तेज़ तूफानी हवाएं चलने लगीं। सभी जानवर भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। इसी बीच उस शेरनी ने अपने बच्चे को जन्म दिया। भाग-दौड़ में वह बच्चे से बिछड़ गई और वह बच्चा भेड़ों के झुंड में जा गिरा। भेड़ों का मालिक उस सद्यजात शेरनी के बच्चे को भी अपने साथ ले गया। शेरनी का बच्चा भेड़ों के साथ रहने लगा। सुबह-सुबह उनके साथ चरने जाता, उनके समान व्यवहार करता और स्वयं को भेड़ ही मानता। उनके समान झुंड में रहते-रहते और उन्हीं की तरह मिमियाते हुए वह अपने स्वरूप को पूरी तरह भूल गया कि शेर कभी झुंड में नहीं रहते। मिमियाते नहीं बल्कि दहाड़ते हैं। एक दिन एक शेर की दृष्टि उस भेड़ों के झुंड पर पड़ी और उसकी एक दहाड़ सुन कर सभी भेड़ें भागने लगीं। शेरनी का बच्चा भी शेर की एक दहाड़ सुन कर काँपने लगा और भेड़ों के साथ-साथ भागते हुए शेर के सामने आ गया।  शेर ने उसे देखकर कहा - तुम कहाँ भाग रहे हो ? तुम तो स्वयं इनको भगाने की ताकत रखते हो। इन रागी-द्वेषियों के बीच में आकर कैसे फंस गए ? अर...

शुभ कर्म और अशुभ कर्म

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज शुभ कर्म और अशुभ कर्म एक किसान अपने खेत में जैसे बीज बोता है, उसे वैसी ही फसल काटने के लिए मिलती है। उसने गेहूँ के बीज डाले हैं तो गेहूँ की फसल काट लेगा और धान बोया है तो उसे चावल मिल जाएंगे। एक पुरानी कहावत है कि बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होय। बबूल का पेड़ लगाते हैं और आम की इच्छा करते हैं। यह तो सम्भव नहीं है। हमने इस जन्म में या पूर्व जन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म किए हैं, उनका फल अब हमारे सामने आ रहा है। पहले तो अवधि ज्ञानी मुनि महाराज होते थे जो अपने अवधि ज्ञान से बता देते थे कि यह सुख या दुःख तुम्हारे द्वारा किए गए किस कर्म के फल के रूप में तुम्हारे सामने आ रहा है।  अब ये सब बातें हमें शास्त्रों के आधार पर मालूम होती हैं कि किस शुभ कर्म का फल सुख के रूप में मिलता है जिसे साता कर्म का उदय कहते हैं और किस अशुभ कर्म का फल दुःख के रूप में मिलता है जिसे असाता कर्म का उदय कहते हैं। क्या हम असाता कर्म के उदय को साता कर्म में बदल सकते हैं ? हाँ, क्यों नहीं ? कैसे ? मान लो हमारे पाप-कर्म अति तीव्र गति से उदय में आ रहे हैं तो उनकी गति को कम करने के ...

”मृत्यु“

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ”मृत्यु“ जिनके बाहर सब कुछ था, उनके पास भीतर कुछ नहीं था। उनको मौत उठा कर ले गई। जिनके बाहर कुछ नहीं था और भीतर सब कुछ था। उन्हें मौत प्रणाम करके लौट गई। आज का व्यक्ति भयभीत है तो जन्म से नहीं अपितु मृत्यु से, क्योंकि हर व्यक्ति जीना चाहता है। हर व्यक्ति सुख, शांति, अमन, चैन की ज़िदगी जीना चाहता है। कोई भी व्यक्ति मरना नहीं चाहता। जीना तो चाहता है पर जीने जैसे कार्य नहीं करता।  काम तो उनका ऐसा है कि ‘मुख में राम, बगल में छूरी’ और सोच है - ‘रघुपति राघव राजा राम, जैसा मौका, वैसा काम।' वे तो ‘आम के आम, गुठली के दाम’ चाहते हैं। हर समय एक ही धुन लगी रहती है - ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना।' ध्यान से देखने पर वे ‘तन के उजले, मन के काले’ दिखाई देते हैं जो ‘मुख के मीठे, दिल के झूठे’ होते हैं। बस एक ही सोच - ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’। ऐसे स्वार्थी लोगों की तो एक ही नीति होती है - ‘जहाँ पर देखी तवा पराँत, वहीं गुज़ारी सारी रात।' उनकी सोच समय के अनुसार कैसे करवट बदलती है, यह कोई नहीं जान सकता। ‘वक्त पड़े बाँका, तो गधे को कहे काका’। वे करनी में ...

ब्रह्मचर्य है जगत पूज्य

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ब्रह्मचर्य है जगत पूज्य “ब्रह्मणे चरति इति ब्रह्मचर्य।” ब्रह्म अर्थात् निज आत्मा। निज आत्म तत्त्व में ही आचरण करना अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है।   ‘वारसाणु वेक्खा’ ग्रंथ में आचार्य कुंदकुंद महाराज कहते हैं - “सत्वेगं पेच्छन्तो इत्थीणं तासु मुभादि दुष्भावं, सो बमं चेर भावं सुक्करि खलु दुर्द्धर धनं।” जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखकर भी उनमें राग-रूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वह दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। ब्रह्मचर्य व्रत का धारी प्रत्येक स्त्री को माता, पुत्री व बहिन की नज़र से देखता है। मनोजयी संतों को स्त्री स्त्रीरूप में नहीं दिखती। उनकी दृष्टि अति पावन होती है। उनकी दृष्टि में सभी प्राणी पुरुषरूप अर्थात् आत्मारूप ही हैं। आत्मा स्त्री, पुरुष, नपुंसक; तीनों वेदों से रहित होती है। जो पुरुषार्थ करे, वही पुरुष है। ब्रह्मचर्य तीनों लोकों के प्राणियों द्वारा अर्चनीय है, वंदनीय है। ब्रह्मचर्य में सागर के समान सभी गुण समाए हुए हैं। इसीलिए जैन धर्म में ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से महिमा बताई गई है। आचरण में शील का आचरण सबसे श्रे...

अपनी अमानत से प्रेम करो, वरना जमानत भी नहीं मिलेगी

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज अपनी अमानत से प्रेम करो, वरना जमानत भी नहीं मिलेगी संसार में आदमी गैरों की अमानत याद रखने के चक्कर में अपनी अमानत अर्थात् अपनी आत्मा को भूल गया है। पर-पदार्थ को कितना संभाल कर रखते हैं, उसी में सुख का वेदन करते हैं। जैसे एक कुत्ते को कहीं से हड्डी मिली। उसे वह अपने मुंह में रखकर चबाने लगा। हड्डी सूखी हुई थी इसलिए उसमें कोई रस नहीं था। लेकिन सख्त हड्डी चबाने के कारण उसका मुंह छिल गया और उसमें से खून आने लगा। कुत्ता अपने ही खून को हड्डी का स्वाद मान कर पीता रहा और आनन्द लेता रहा। इसी प्रकार हम भी पर-वस्तु में सुख मान कर आनन्द मना रहे हैं, जबकि वास्तव में वह दुःख का कारण है, सुख का नहीं। हम अपने आत्म-तत्व के सुख की अमानत का ध्यान नहीं कर रहे, जिसे समय हमसे धीरे-धीरे छीनता जा रहा है। यदि हमने अपनी अमानत से प्रेम नहीं किया और इसका ध्यान करना भूल गए, तो इस भूल की जमानत भी नहीं मिलेगी। एक संत भी किसी भव्यात्मा की ही जमानत देता है। जब तक हमें अपनी अमानत का साक्षात्कार नहीं होगा, तब तक न तो कोई संत हमारी जमानत देगा और न ही हम पर प्रभु की या संतों की इनायत हो सकेग...

भावेन बन्धो, भावेन मोक्षो

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज भावेन बन्धो, भावेन मोक्षो भावों से ही कर्मबंध होता है। शुभ भावों से शुभ कर्मों का बंध होता है और अशुभ भावों से अशुभ कर्मों का बंध होता है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह ध्यान में रखनी चाहिए कि कहीं ऐसा न हो जाए कि शुभ करते-करते अशुभ कर्मों का बंध हो जाए। वह कैसे, महाराज ? जब हम पूजा-पाठ करते हैं, जाप-ध्यान करते हैं तो शुभ कर्मों का बंध ही तो होगा। हाँ, हाँ अवश्य होगा लेकिन तब होगा जब हम मन, वचन और काया का त्रियोग सम्भाल कर पूजा-पाठ और जाप-ध्यान कर रहे हों। तुम्हारी वास्तविकता तो यह है कि (मन, वचन, काया) होता कहीं ओर है और रहता कहीं ओर है। जैसे तुमने पक्षी को आकाश में उड़ते हुए देखा होगा। उड़ रहा है आकाश में और नज़र गड़ाए हुए है ज़मीन पर पड़ी हुई गंदगी और कीट-पतंगों पर।  एक बार राम और लक्ष्मण तालाब के समीप चले जा रहे थे। लक्ष्मण ने देखा कि एक सफेद रंग का बगुला तालाब के किनारे आँख बंद किए ध्यान में मग्न खड़ा था।  ‘वाह! देखो, देखो भैया! इसे देख कर तो लग रहा है कि कितनी लग्न से भगवान की भक्ति कर रहा हो। सच्चा भक्त तो यही है।’ जैसे ही राम ने उसकी ओर...

सनतकुमार चक्रवर्ती

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज सनतकुमार चक्रवर्ती धन यौवन स्थिर नहीं, नहीं स्थिर परिणाम। करना है सो कर चलो, समय चले अविराम। उसका वैभव तो बेजोड़ था ही, उसका सौन्दर्य भी इंद्रों को लज्जित करने वाला था। उसके रूप-सौन्दर्य की इंद्र भी प्रशंसा कर रहा था पर किसी देव को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि किसी हाड़ मांस के बने मनुष्य का सौन्दर्य भी देवराज इंद्र से बढ़ कर हो सकता है। किंतु इंद्र की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नज़र नहीं आ रहा था। अतः दो देवों ने उसे प्रत्यक्ष देख कर ही समाधान प्राप्त करने का निर्णय लिया। दोनों देवों ने मनुष्यों का रूप बनाया और सनतकुमार चक्रवर्ती की व्यायाम शाला में पहुँच गए। उस समय चक्रवर्ती व्यायाम कर रहे थे लेकिन उनके धूल धूसरित शरीर में भी सौन्दर्य की आभा छिप नहीं पा रही थी। वे दोनों देव उस अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर आश्चर्य चकित हो रहे थे और परस्पर उस रूप सौन्दर्य की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे। तभी चक्रवर्ती ने उन दोनों को देखकर पूछा कि आप दोनों कौन हैं और किसलिए आए हैं ? देवों ने कहा कि हम दोनों दूर देश से केवल आपके दर्शन करने के लिए आए हैं। हमने आप के...