ब्रह्मचर्य है जगत पूज्य
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
ब्रह्मचर्य है जगत पूज्य
“ब्रह्मणे चरति इति ब्रह्मचर्य।”
ब्रह्म अर्थात् निज आत्मा। निज आत्म तत्त्व में ही आचरण करना अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है।
‘वारसाणु वेक्खा’ ग्रंथ में आचार्य कुंदकुंद महाराज कहते हैं -
“सत्वेगं पेच्छन्तो इत्थीणं तासु मुभादि दुष्भावं, सो बमं चेर भावं सुक्करि खलु दुर्द्धर धनं।”
जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखकर भी उनमें राग-रूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वह दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। ब्रह्मचर्य व्रत का धारी प्रत्येक स्त्री को माता, पुत्री व बहिन की नज़र से देखता है। मनोजयी संतों को स्त्री स्त्रीरूप में नहीं दिखती। उनकी दृष्टि अति पावन होती है। उनकी दृष्टि में सभी प्राणी पुरुषरूप अर्थात् आत्मारूप ही हैं।
आत्मा स्त्री, पुरुष, नपुंसक; तीनों वेदों से रहित होती है। जो पुरुषार्थ करे, वही पुरुष है।
ब्रह्मचर्य तीनों लोकों के प्राणियों द्वारा अर्चनीय है, वंदनीय है। ब्रह्मचर्य में सागर के समान सभी गुण समाए हुए हैं। इसीलिए जैन धर्म में ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से महिमा बताई गई है। आचरण में शील का आचरण सबसे श्रेष्ठतम है।
संसार में जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करके उसे खंडित कर देता है, वह नरक जैसी दुर्गति का पात्र बनता है और जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है, वह पंचम गति को प्राप्त करके भव-सागर से पार हो जाता है। ब्रह्मचर्य व्रत के बिना आपके द्वारा किए गए सारे जप-तप व्यर्थ हैं। यह आपके तन-मन को पवित्र करता है। अतः मन को पवित्र बनाने के लिए इसे कुशील से हटाकर ब्रह्मचर्य पालन करके आत्म-स्वरूप में लगाओ।
कहा जाता है कि मन की गति चंचल होती है। इसे एक स्थान पर केन्द्रित करना बहुत कठिन है। इसमें प्रवाहित होने वाले भाव कभी ऊपर उठते हैं और कभी नीचे गिरते हैं। मन के भावों को सदा उच्च श्रेणी का बनाए रखें। निम्न श्रेणी का होने ही न दें और कभी नीचे गिरने लगे तो तुरन्त संभाल लें।
यदि मन में विकृति आ गई तो वह इन्द्रियों को अपने इशारों पर चलाने लगेगा। मन विकार रहित होगा तो पत्थर में भी भगवान के दर्शन होंगे। नर में नारायण दृष्टिगोचर होगा। हर स्त्री-पुरुष में आत्म-तत्व का अनुभव होगा।
हम भी अपने मन को पवित्र बनाने के लिए शील-व्रत को अपनाएं। आचार्य भगवन् कहते हैं -
शील ही सहज आभूषण है। शील ही उत्तम मंडन है। शील ही परम संरक्षण है। शील से अधिक हमारा भला चाहने वाला कोई मित्र नहीं है।
अतः हम ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करें और अपने जीवन को पावन व पवित्र बनाएं।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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