सनतकुमार चक्रवर्ती

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

सनतकुमार चक्रवर्ती

धन यौवन स्थिर नहीं, नहीं स्थिर परिणाम।

करना है सो कर चलो, समय चले अविराम।

उसका वैभव तो बेजोड़ था ही, उसका सौन्दर्य भी इंद्रों को लज्जित करने वाला था। उसके रूप-सौन्दर्य की इंद्र भी प्रशंसा कर रहा था पर किसी देव को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि किसी हाड़ मांस के बने मनुष्य का सौन्दर्य भी देवराज इंद्र से बढ़ कर हो सकता है। किंतु इंद्र की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नज़र नहीं आ रहा था। अतः दो देवों ने उसे प्रत्यक्ष देख कर ही समाधान प्राप्त करने का निर्णय लिया।

दोनों देवों ने मनुष्यों का रूप बनाया और सनतकुमार चक्रवर्ती की व्यायाम शाला में पहुँच गए। उस समय चक्रवर्ती व्यायाम कर रहे थे लेकिन उनके धूल धूसरित शरीर में भी सौन्दर्य की आभा छिप नहीं पा रही थी। वे दोनों देव उस अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर आश्चर्य चकित हो रहे थे और परस्पर उस रूप सौन्दर्य की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे। तभी चक्रवर्ती ने उन दोनों को देखकर पूछा कि आप दोनों कौन हैं और किसलिए आए हैं? देवों ने कहा कि हम दोनों दूर देश से केवल आपके दर्शन करने के लिए आए हैं। हमने आप के रूप-सौन्दर्य की जैसी प्रशंसा सुनी थी, आप में उससे भी कहीं अधिक सौन्दर्य पाया है।

तभी चक्रवर्ती ने कहा कि सौन्दर्य देखना हो तो राजसभा में आइए, सुसज्जित सौन्दर्य तो आपको वहां देखने को मिलेगा। कुछ देर बाद वे देवगण राजसभा में पहुँचे, जहां चक्रवर्ती रत्नजड़ित सिंहासन पर बहुमूल्य वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर बैठे थे। जब देवों ने उन्हें वहां देखा तो वे आपस में अफसोस प्रगट करने लगे। उनके चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभर आई थी। वे एक दूसरे को अन्यमनस्क होकर देख रहे थे। चक्रवर्ती की दृष्टि उन पर पड़ी। उनसे पूछा कि यहां आकर आप परेशान से क्यों दिखाई दे रहे हैं? व्यायामशाला में तो बहुत प्रसन्न लग रहे थे। मेरे सौन्दर्य की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे। कहो, अब आपकी मनोदशा में यह परिवर्तन क्यों?

देवों ने कहा - राजन् सत्य तो यह है कि अब आपमें वह सौन्दर्य दिखाई नहीं दे रहा जो उस धूल धूसरित शरीर में प्रगट हो रहा था। क्योंकि अब यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि आप के शरीर के परमाणु वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे हैं। सभी लोग पूछने लगे कि इतने थोड़े से समय में इतना बड़ा परिवर्तन कैसे हो सकता है?

तब देवों ने पानी से भरे हुए दो घड़े मंगाए और उनमें से पानी की एक छोटी सी बूंद अलग करके पूछा कि इसमें से कुछ पानी कम हुआ है? पर्दे के पीछे हुई इस क्रिया को कोई नहीं जान सका। सभी ने कहा कि इसमें तो पानी ज्यों का त्यों है। कुछ भी कम नहीं हुआ है। तब देवों ने कहा कि आपके चर्म-चक्षु इस सूक्ष्म परिणमन को नहीं देख सकते किंतु हम अवधि ज्ञान के चक्षुओं से इस सूक्ष्म परिवर्तन को देख रहे हैं। हम सामान्य मनुष्य नहीं, देवगति के देव हैं।

यह सुनते ही सनतकुमार चक्रवती को शरीर की अस्थिरता का बोध हो गया। वह सोचने लगा कि एक दिन यह शरीर नष्ट हो जाएगा। अतः क्यों न समय रहते इसका उपयोग आत्म-कल्याण में कर लिया जाए। बस! फिर तो वे बिना एक पल भी नष्ट किए अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का सम्पूर्ण भार उतार कर दीक्षा लेकर आत्म साधना करने के लिए एकांत वन-प्रांत में चले गए।

सुख तो ज्ञानमात्र का अनुभवन है। इसके अतिरिक्त सब विकल्प आकुलतामय होने के कारण दुःख ही है।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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