कर्म बंधः कैसे
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
कर्म बंधः कैसे
प्रायः सामान्यजन की धारणा होती है कि धर्म विरूद्ध कार्य करने से ही पाप कर्म का बंध होता है पर उनका यह ज्ञान अधूरा है। लोग कहते हैं कि हमने तो किसी को नहीं मारा तो हमें पाप का बंध कैसे होगा? अरे भाई! तुमने तो नहीं मारा पर जब दूसरा आदमी उसे मार रहा था, तब तो तुमने उसे कहा था न कि अच्छा है, और मारो। तुम स्वयं तो मारने नहीं गए पर दूसरे को भेज दिया अपने स्थान पर कि मैंने तो नियम ले रखा है। मैं किसी की हिंसा नहीं करूँगा पर मैं उस जीव से, चाहे वह चींटी या दीमक ही क्यों न हो, उससे बहुत परेशान हूँ। तुम उनसे छुटकारा दिलाओ। फिर कहते हो कि मुझे पाप नहीं लगा।
पाप कर्म हो या पुण्य कर्म, इनका बंध तीन प्रकार से लगता है - कृत अर्थात् स्वयं करना, कारित अर्थात् किसी से करवाना और अनुमोदना अर्थात् करने वाले का उत्साह बढ़ाना। अब चाहे वह दान-पूजा का काम हो या हिंसा-झूठ आदि का काम हो।
एक व्यक्ति मनोरंजन के लिए टी.वी. देख रहा है। यदि वह केवल मनोरंजन के लिए देख रहा है वहां तक तो ठीक है पर यदि वह अपनी भावनाओं को भी उसमें शामिल कर लेता है तो उसके कर्म बंध होकर ही रहेंगे। बॉक्सिंग का मैच चल रहा है और वह एक पक्ष का समर्थक है तो जब उसे मुक्का लगता है तब उसके मन में दूसरे के प्रति विद्वेष भाव पैदा होता है और जब वह दूसरे को मारता है तब वह चिल्लाने लगता है कि शाबाश! और मारो। तो हो गया न पाप कर्म का बंध। न तुमने किया, न करवाया पर केवल अनुमोदना करके ही तुम पाप के भागीदार बन गए।
केवल करने की अनुमोदना से ही नहीं, बल्कि यह भावना रखना भी पाप का कारण है कि यह काम तो मैं ही करूँगा, किसी ओर को नहीं करने दूंगा।
एक राजा था। उसने यह घोषणा करवा दी कि नगर में कोई भी साधु संत आएंगे तो उनके आहार की व्यवस्था मैं ही करूँगा। सभी के मन में श्रद्धा थी कि हम भी इस पुण्य के काम में शामिल हों पर वे मन मसोस कर रह जाते थे। एक बार राजा को किसी काम से बाहर जाना था इसलिए वह आहार की व्यवस्था नहीं कर पाया। अन्य कोई व्यक्ति कर नहीं सकता था तो उस दिन मुनि को बिना आहार के ही रहना पड़ा और वे अपनी कुटिया में वापिस चले गए।
ऐसा लगातार 4 महीने तक चलता रहा। मुनि नगर में आते, आहार मिलता नहीं और वे बिना आहार के ही अपनी कुटिया में वापिस चले जाते। काया जीर्ण होने लगी। धर्म ध्यान भी बाधित होने लगा। वे अपना अधिक समय कुटिया में ही बिताने लगे। प्रजा के लोगों में रोष फैलने लगा कि कैसा दुष्ट राजा है? न तो खुद आहार की व्यवस्था करता है और न ही हमें करने देता है।
यह बात मुनि के कानों में पड़ी और उनके मन में राजा के जीव के प्रति द्वेष भावना का कर्म बंध गया। संयोग से उनकी आयु का अंतिम क्षण भी वही था और वे मरकर उस राजा के यहाँ पुत्र बन कर पैदा हुए। राजा के दुष्कर्मों का बदला उस मुनि ने पुत्र बन कर लिया।
अतः हमें पग पग पर सावधान होकर अपने मन को, वचन को और काया को स्थिर रखना चाहिए और स्वयं को बुरे भावों व कार्यों से बचाना चाहिए।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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