कर्म-बंधः क्यों और कैसे - 1
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
कर्म-बंधः क्यों और कैसे - 1
महानुभावों, कर्म जीवात्मा में चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर चिपक जाते हैं। जीव की अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रिया द्वारा अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग द्वारा प्रेरित होकर राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति के प्रति चुम्बक की तरह आकृष्ट आत्मा जो कार्य करता है वह कर्म कहलाता है। मुनि श्री कहते हैं कि वे ही कर्म जीव में चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर चिपक जाते हैं।
कर्म के दो भेद हैं - द्रव्य कर्म और भाव कर्म।
जीव में राग-द्वेषादि परिणामों के निमित्त से आकृष्ट होकर जो कर्म-परमाणु आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह घुल-मिल जाते हैं, वे पुद्गल परमाणु द्रव्य कर्म कहलाते हैं और उनके निमित्त से आत्मा में जो राग-द्वेषादि विकारात्मक संकल्प पैदा होता है, उन्हें भाव कर्म कहते हैं।
आत्मा के मुख्यतः आठ गुण हैं और उनको आवृत करने वाले कर्मों के भी आठ भेद हो जाते हैं।
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय।
इनमें ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं और शेष चार अघातिया कर्म हैं। घातिया कर्म आत्मा के गुण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र व सुख (आनंद) का घात करते हैं। इसलिए इन्हें घातिया कर्म कहा जाता है। इन कर्मों का सर्वथा क्षय किए बिना आत्मा सर्वज्ञ केवली नहीं बन सकती।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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