स्वयं को पहचानें
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
स्वयं को पहचानें
एक गर्भवती शेरनी जंगल में विचरण कर रही थी कि अचानक आकाश में बिजली चमकने लगी और तेज़ तूफानी हवाएं चलने लगीं। सभी जानवर भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। इसी बीच उस शेरनी ने अपने बच्चे को जन्म दिया। भाग-दौड़ में वह बच्चे से बिछड़ गई और वह बच्चा भेड़ों के झुंड में जा गिरा।
भेड़ों का मालिक उस सद्यजात शेरनी के बच्चे को भी अपने साथ ले गया। शेरनी का बच्चा भेड़ों के साथ रहने लगा। सुबह-सुबह उनके साथ चरने जाता, उनके समान व्यवहार करता और स्वयं को भेड़ ही मानता। उनके समान झुंड में रहते-रहते और उन्हीं की तरह मिमियाते हुए वह अपने स्वरूप को पूरी तरह भूल गया कि शेर कभी झुंड में नहीं रहते। मिमियाते नहीं बल्कि दहाड़ते हैं।
एक दिन एक शेर की दृष्टि उस भेड़ों के झुंड पर पड़ी और उसकी एक दहाड़ सुन कर सभी भेड़ें भागने लगीं। शेरनी का बच्चा भी शेर की एक दहाड़ सुन कर काँपने लगा और भेड़ों के साथ-साथ भागते हुए शेर के सामने आ गया।
शेर ने उसे देखकर कहा - तुम कहाँ भाग रहे हो? तुम तो स्वयं इनको भगाने की ताकत रखते हो। इन रागी-द्वेषियों के बीच में आकर कैसे फंस गए? अरे! तुम तो जंगल के राजा हो। अपने स्वभाव को पहचानो। इनका साथ छोड़ो और मेरे साथ चलो।
जैसे आप अपने स्वरूप का बोध कराने के बाद भी स्वयं को शुद्ध-बुद्ध आत्मा नहीं मानते, वैसे ही वह शेरनी का बच्चा भी स्वयं को शेर मानने से इंकार करता रहा।
शेर ने उसे एक सरोवर के किनारे ले जाकर खड़ा कर दिया और बोला कि देख! अपने और मेरे चेहरे का प्रतिबिम्ब इस पानी में देख। बच्चे ने देखा तो दोनों का चेहरा समान दिखाई दिया।
शेर बोला - अब मेरे समान अपनी आवाज़ में दहाड़ लगा।
जैसे ही बच्चे ने दहाड़ लगाई तो उसके अन्दर का शेर जागृत हो गया और उसे अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हुआ कि मैं तो अपने को भेड़ मान रहा था जो ओरों पर आश्रित रहती है। मैं स्वाश्रित हूँ, सर्वशक्तिमान हूँ।
अपने स्वरूप का सच्चा ज्ञान होते ही वह भी सिंह के समान बलशाली हो गया और भेड़ों का साथ छोड़कर सिंह की तरह रहने लगा।
इस भेड़चाल से मुक्त हो जाओ। अपनी आत्मा को परमात्मा के समकक्ष बनाने के लिए आत्म-बोध कराना पड़ता है। गुरु के रूप में यह शेर आपको असली स्वरूप का ज्ञान कराने आया है। गुरु की आवाज़ सुनो और जागो। अभी तक आपने जिनवाणी को मनोरंजन का साधन बनाया है, अब इसे आत्मोत्थान के मार्ग का पथ-प्रदर्शक बनाइए।
आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में ‘तुल्या भवन्ति’ का उपदेश दिया है कि वह स्वामी क्या, जो सेवक को अपने समान न बना दे। यदि आप भी परमात्मा के समान अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान पाना चाहते हैं तो अपनी भक्ति को प्रभु-प्रेम में बदलो और प्रेम को प्रार्थना में।
प्रार्थना में उठेंगे हाथ, तो मिलेगा दिगम्बर गुरुओं का साथ और उनका आशीर्वाद के लिए उठा हाथ आपको बना देगा त्रिलोकीनाथ।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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