”मृत्यु“

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

”मृत्यु“

जिनके बाहर सब कुछ था, उनके पास भीतर कुछ नहीं था। उनको मौत उठा कर ले गई।

जिनके बाहर कुछ नहीं था और भीतर सब कुछ था। उन्हें मौत प्रणाम करके लौट गई।

आज का व्यक्ति भयभीत है तो जन्म से नहीं अपितु मृत्यु से, क्योंकि हर व्यक्ति जीना चाहता है। हर व्यक्ति सुख, शांति, अमन, चैन की ज़िदगी जीना चाहता है। कोई भी व्यक्ति मरना नहीं चाहता। जीना तो चाहता है पर जीने जैसे कार्य नहीं करता। 

काम तो उनका ऐसा है कि ‘मुख में राम, बगल में छूरी’ और सोच है - ‘रघुपति राघव राजा राम, जैसा मौका, वैसा काम।'

वे तो ‘आम के आम, गुठली के दाम’ चाहते हैं। हर समय एक ही धुन लगी रहती है - ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना।'

ध्यान से देखने पर वे ‘तन के उजले, मन के काले’ दिखाई देते हैं जो ‘मुख के मीठे, दिल के झूठे’ होते हैं। बस एक ही सोच - ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’। ऐसे स्वार्थी लोगों की तो एक ही नीति होती है - ‘जहाँ पर देखी तवा पराँत, वहीं गुज़ारी सारी रात।'

उनकी सोच समय के अनुसार कैसे करवट बदलती है, यह कोई नहीं जान सकता। ‘वक्त पड़े बाँका, तो गधे को कहे काका’। वे करनी में नहीं केवल कथनी में विश्वास रखते हैं - ‘कथनी के  दयालू, करनी के भालू’। रंग बदलने में तो वे गिरगिट को भी पीछे छोड़ दें। ‘गंगा गए तो गंगादास, जमना गए तो जमनादास।' 

ऐसी हैं तुम्हारी नीतियाँ और फिर कहते हो कि जीना चाहते हो! स्वयं तो मौत से गले मिल रहे हो और कहते हो कि जीना चाहते हो। स्वयं मौत का आह्वान कर रहे हो और कहते हो कि हम जीना चाहते हैं।

जीने के लिए जीने की कला भी आनी चाहिए।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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