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Showing posts from January, 2021

उत्तम क्षमा

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज उत्तम क्षमा आज हम उत्तम क्षमा की साधना करेंगे और उत्तरोत्तर अपनी आत्मा को शुद्धता की ओर ले जाने का प्रयास करेंगे।   ‘क्षमा वीरस्य भूषणं’ अर्थात् क्षमा वीरों का आभूषण है । यह कायरों का काम नहीं है। किसी को क्षमा करने के लिए एक उदार हृदय की आवश्यकता होती है।  क्षमा का अर्थ है - क्रोध का अभाव। हमारी आत्मा का स्वभाव है - क्षमा, शांत भाव। आत्मा अपने स्वभाव में ही रहना चाहती है। यदि हमें क्रोध आ भी जाए तो वह 48 मिनट से अधिक नहीं रह सकता। यह एक तात्कालिक संवेग है जो थोड़े समय तक ही रहता है। कुछ समय बाद हम स्वयं ही सामान्य हो जाते हैं। इसका खतरनाक परिणाम तो तब हमारे सामने आता है जब यह वैर का रूप धारण कर लेता है और केवल इस जन्म में ही नहीं बल्कि अगले भवों तक भी हमारे परिणामों को शुद्ध नहीं होने देता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है - कमठ का वैर जो उसने किसी जन्म में पार्श्वनाथ के जीव के साथ बांधा था। अतः सावधान हो जाओ और प्रत्येक जीव के प्रति क्षमा भाव धारण करो। क्रोध क्यों आता है ? जब हमारी अपेक्षा की उपेक्षा होती है तब हम उसे सहन नहीं कर पाते। हम अपने परिवा...

पर्वः कषाय-विजय के साधन

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज पर्वः कषाय-विजय के साधन महानुभावों! जैन जगत में चतुर्दशी का विशेष महत्व है। आज लोग अनेक प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान रखकर आत्म-उन्नति के मार्ग में आगे बढ़ते हैं। वैसे तिथियों और मुहूर्तों में कोई अतिरिक्त विशेषता नहीं होती पर यह सिद्धांत भी सर्वमान्य है कि समय और परिवेश का भी प्रभाव होता है। उससे वही लाभान्वित हो सकता है जिसका विवेक जागृत हो जाता है। विवेक-जागृति के अभाव में कोई भी विशेष तिथि या मुहूर्त मनुष्य का हित नहीं कर सकता। यदि हम अपने आज को सफल बनाना चाहते हैं तो हमें अपने कर्त्तव्य का बोध होना चाहिए। मैं तो यही कहूँगा कि आज के दिन सब को कर्त्तव्यनिष्ठ बनना चाहिए। बनेंगे तो बाद में, पहले आप सब यह जान लें कि कर्त्तव्यनिष्ठा क्या होती है ? इसका तात्पर्य समझने के बाद ही हम कर्त्तव्यनिष्ठ बन सकते हैं। आज मैं यहाँ उपस्थित साधु-साध्वी समाज और श्रावक-श्राविका समाज से यही कहना चाहता हूँ कि हम तभी कर्त्तव्यनिष्ठ बन सकेंगे जब हम कषायों पर विजय प्राप्त कर लेंगे। वास्तव में कषाय है क्या ? इसमें एक सांकेतिक अर्थ छिपा हुआ है। मन के जो भाव आत्मा को कसे, उसे ...

शास्त्र

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज शास्त्र महानुभावों! ”जो देवों का कहा हुआ हो, जिसका कोई खण्डन न कर सके, जिसका किसी के द्वारा उल्लंघन न किया गया हो, तर्क अनुमान से बाधित न हो, कुमार्ग का खण्डन करने वाला हो, इन लक्षणों से युक्त जो शास्त्र हो, वही सच्चा शास्त्र कहलाता है।“ जैन दर्शन में शास्त्र को दूसरे शब्दों में ‘जिनवाणी’ भी कहते हैं। जब हम बच्चे होते हैं तो अपने माता-पिता के द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वह किसी शास्त्र में से पढ़ कर नहीं दिया जाता अपितु उनके अपने अनुभव के आधार पर व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है। स्कूल में अध्यापक हमें लौकिक शिक्षा देते हैं पर आगम का ज्ञान केवल ‘जिनवाणी माता’ के माध्यम से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों का अध्ययन करने से हमें भेद विज्ञान का बोध होता है कि यह शरीर अलग है और आत्मा अलग है। जैन धर्म में शास्त्रों को चार खण्डों में विभक्त किया गया है - प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग - वे शास्त्र, जिनमें त्रेसठ श्लाका महापुरुषों के जीवन का वर्णन हो। चरणानुयोग - वे शास्त्र, जिन ग्रन्थों में मुनि धर्म एवं श्रावक धर्म का वर्णन हो,...

गुरु

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज गुरु ”पिच्छी लेकर नग्न रहे, और केश लोच जो करते हैं, तन शृंगार रहित वे होकर, बाइस परिषह सहते हैं, स्व आत्म कल्याण करें, और पर को मार्ग बताते हैं, सुलझाते वो मन की ग्रन्थियां, सतगुरु वो कहलाते हैं।" गुरु अर्थात् ‘गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने वाले’, जो गुणातीत, रूपातीत व रसातीत हैं। कहते हैं कि इंसान का जन्म एक बार तब होता है जब वह माँ के गर्भ से जन्म लेता है और दूसरा जन्म तब होता है जब गुरु उसमें दीक्षा के संस्कार डालते हैं। पहले जन्म में, जब इंसान माँ के गर्भ से जन्म लेता है, तब वह मिट्टी का कच्चा घड़ा होता है और दूसरे जन्म में, जब गुरु उसमें दीक्षा के संस्कार डालते हैं, तब वह पक कर मज़बूत हो जाता है। जिस प्रकार दूध के दाँत पहले मुलायम होते हैं और ज़रा सा लड्डू खाते ही टूट जाते हैं पर एक बार टूटने के बाद जब दूसरी बार दाँत आते हैं तो इतने मज़बूत बन जाते हैं कि पत्थर को चबाने की शक्ति भी आ जाती है। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि हमें गुरु-शरण मिल जाए तो हम भी स्वयं को मज़बूत बना कर, अपने जीवन की उपयोगिता को समझ कर उसे सार्थक कर सकते हैं क्योंकि गुर...

क्षमा

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज क्षमा महानुभावों! क्षमा हमारी आत्मा का स्वभाव है।  यह हमारी आत्मा का सर्वोत्कृष्ट गुण है। जो व्यक्ति सहनशील होते हैं वे ही क्षमा को धारण कर सकते हैं। जैसे धरती और वृक्ष जितना भार वहन करते हैं, उतने ही महान् बनते जाते हैं। धरती सबकी ठोकरों को सहन करती है फिर भी प्रतिकार नहीं करती। यह धरती की महानता है। वृक्ष गर्मी, सर्दी, वर्षा की बाधाओं को सहन करते हैं फिर भी उन पर मीठे फल ही लगते हैं। इतना ही नहीं, यदि कोई वृक्ष पर पत्थर भी मारे तो भी वे मीठे फल ही देते हैं।  क्षमा कोई सप्रयास किया जाने वाला भाव नहीं है। यह अंतरंग का स्वभाव है। क्षमा कोई ओढ़नी नहीं है जिसे ऊपर से ओढ़ लिया जाए वरन् यह हमारी आत्मा का गुण है जो हमारी आत्मा में रचा बसा हुआ है। क्षमा कई परिस्थितियों में की जाती है। एक तो जब स्थिति हमारे अनुकूल नहीं होती, तब हमारे पास क्षमा करने के सिवाय कोई उपाय नहीं होता। दूसरी स्थिति में व्यक्ति स्वार्थवश भी क्षमा का चोला ओढ़ लेता है। मगर यह वास्तविक क्षमा नहीं कहलाती। वास्तविक क्षमा तो तब कहलाती है जब मन में क्रोध की भावना उत्पन्न ही न हो, वहाँ क...

दुःख - सुख

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज दुःख - सुख महानुभावों! दुःख-सुख क्या हैं ? ये जीवन के दो पहलू ही तो हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं या गाड़ी के दो पहिए होते हैं, मनुष्य के दो पैर होते हैं। दुःख-सुख दोनों एक साथ नहीं रह सकते। ये तो छाँव-धूप की तरह आते-जाते रहते हैं। कभी जीवन में सुख रहता है तो कभी दुःख। अब यह जानना भी आवश्यक है कि आखिर ये दोनों हैं क्या ? सुख दो प्रकार का होता है - बाह्य सुख और आत्मिक सुख। मनुष्य जो सुख भोग-विलास में या रिश्ते-नातों में खोजता है वह बाह्य सुख है। वह सोचता है कि मेरा घर, मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरे माता-पिता से ही मुझे सुख मिलता है। घर परिवार अच्छा है, पत्नी आज्ञाकारी है, बच्चे मुझे सम्मान देते हैं तो मैं सुखी हूँ। मगर ज़रा ध्यान से सोचो कि क्या यह सच्चा सुख है ? क्या यह सुख स्थाई है ? नहीं, यह सुख सदा रहने वाला नहीं है। यदि पत्नी के साथ ज़रा सा विवाद हो गया या बच्चों ने पलट कर जवाब दे दिया तो एक पल में यह सुख, दुःख में बदल जाएगा। इंसान हर क्षेत्र में अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में ही लीन है। वह यह नहीं देखता कि मेरे पास क्या है बल्कि इसी उधेड...

तीर्थक्षेत्रों के दर्शन का महत्त्व

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज तीर्थक्षेत्रों के दर्शन का महत्त्व तीर्थक्षेत्रों के दर्शन मात्र से पूर्वबद्ध पाप नष्ट हो जाते हैं। महानुभावों! तीर्थक्षेत्रों के दर्शन मात्र से पूर्वबद्ध पाप वैसे ही नष्ट हो जाते हैं जैसे दीप के प्रज्ज्वलित होते ही अंधकार समाप्त हो जाता है। मुनि श्री कहते हैं कि वैसे तो संसार में हर क्षेत्र, हर स्थान समान है किंतु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का प्रभाव एक स्थान को दूसरे स्थान से पृथक कर देता है क्योंकि हम नित्य देखते हैं कि द्रव्यगत विशेषता, क्षेत्रकृत प्रभाव और कालकृत परिवर्तन होता रहता है। केवल इतना ही नहीं, चारों ओर के वातावरण पर व्यक्ति के हर पल बदलते रहने वाले भावों और विचारों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। जिनकी आत्मा में विशुद्ध अथवा कतिपय शुद्ध भावों की स्फुरणा होती है, उनमें से शुभ तरंगें निकल कर वातावरण में व्याप्त हो जाती हैं। उस वातावरण में शुचिता, शांति, प्रसन्नता और निर्भयता का अनुभव होने लगता है। ये तरंगें वातावरण में जितनी दूर तक फैलती हैं, उतनी दूरी में रहने वाले प्राणियों पर भी अपना प्रभाव डालती हैं। आगे मुनि श्री ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत क...

धर्म

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज धर्म महानुभावों! धर्म क्या है ?   ‘वस्तु का स्वभाव ही धर्म है’। जिस प्रकार चन्द्रमा का स्वभाव शीतल है, सूर्य का उष्ण है, पानी का ठण्डा है, अग्नि का गर्म है। यह सबका अपना-अपना स्वभाव है। कोई अपना स्वभाव या अपना धर्म नहीं छोड़ता, जैसे पानी को कितना भी गर्म कर लो, वह वातावरण के संयोग से कुछ समय बाद स्वयं ही ठण्डा हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव भी दयामय, करुणा व वात्सल्य से परिपूर्ण है मगर मनुष्य अपने स्वभाव को बहुत जल्दी छोड़ देता है। जैसे मनुष्य का स्वभाव है - क्षमा को धारण करना, पर ज़रा सा निमित्त मिलते ही वह क्रोधित हो जाता है। महाराज श्री कहते हैं कि हमें भी अन्य वस्तुओं व प्राणियों की तरह अपने स्वभाव को, अपने धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। बहुत से लोग पूजा-पाठ, जाप, स्वाध्याय, तप आदि को ही धर्म मानते हैं। मगर महाराज श्री कहते हैं कि ये सब धार्मिक क्रियाएं भी मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ये साधना की सीढ़ी के साधन हैं। जिस प्रकार मंज़िल और मार्ग में अन्तर होता है, उसी प्रकार धर्म और धार्मिक क्रियाओं में अन्तर होता है। हमारी आत्मा का स्वभाव ...

ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी आवश्यक है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी आवश्यक है महानुभावों! ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी अति आवश्यक है अन्यथा यह दीपक राग-द्वेष की हवा से बुझ जाएगा। क्षमताओं के विकास के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता है पर कुछ लोगों को स्वयंमेव ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उन्हें शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। मुनि श्री कहते हैं कि ज्ञानी का 24 घंटे स्वाध्याय चलता रहता है क्योंकि उसकी प्रत्येक क्रिया सावधानीपूर्वक होती है।  ज्ञानी भोक्ता होते हुए भी भोग विलासिता का दास नहीं होता बल्कि उदास होकर ज्ञान की ओर बढ़ता है। अज्ञानी को कषाय करने में आनंद आता है। ज्ञानी को कषाय जीतने में आनंद आता है। अज्ञानीजन शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग-बहिरंग में ही दंग रह जाते हैं। अंतरंग में वे उतरते ही नहीं। ज्ञानीजन आत्मा के साथ ही मिलन-मिलाप रखते हैं, उसी के साथ संबंध बनाए रखते हैं। अज्ञानीजन परिजनों को ही अपना अहितकारी व शत्रु मानते हैं पर ज्ञानीजन निज कर्मों को एवं अशुभ भावों को ही अपना शत्रु मानते हैं। मुनि श्री ने आगे कहा कि जैसे एक माँ अपने बेटे से अनुराग तो रखती है पर स...

दुनिया में कोई अनाथ नहीं, सभी जगन्नाथ हैं

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज दुनिया में कोई अनाथ नहीं, सभी जगन्नाथ हैं महानुभावों! यह हमारा भ्रम है कि दुनिया में हमें कोई ग़रीब दिखाई देता है और कोई अनाथ। इस दुनिया में कोई ग़रीब नहीं है। अध्यात्म-दृष्टि से सभी परम शक्ति सम्पन्न हैं। किसी को बेचारा मत कहो। यह तो परमात्मा का अपमान है। ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, रघुनाथ के देश में कोई अनाथ नहीं हो सकता। हर मनुष्य सम्राट है पर वह आत्म-सत्ता को भूल गया है। इसी कारण वह भिखारियों की तरह जी रहा है। आदमी को सम्राट बनने के लिए अपनी मौत को भुला देना चाहिए क्योंकि आत्मा कभी नहीं मरती। तुमने जिसका उपकार किया है या करना चाहते हो, उसकी बुराइयों को भुला दो। उसकी बुराइयों पर ध्यान ही न दो। प्रभु जिसकी बाँह पकड़ लेता है, उसे फिर कभी नहीं छोड़ता। मनुष्य एक यंत्र की भांति है और प्रभु ही उसमें शक्ति भरता है। जयपुर में अगर तुम मूर्ति खरीदने जाओ तो भारी और बड़ी मूर्ति सस्ती मिलेगी तथा हल्की और छोटी मूर्ति की कीमत अधिक होगी। जानते हो क्यों ? मूर्तिकार से इसका कारण पूछो तो वह कहता है कि मूल्य न तो मूर्ति का है और न ही इसमें प्रयोग किए गए पत्थर का। मूल्य तो इसकी...

संत हरिद्वार हैं तो सत्संग गंगा-स्नान है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज संत हरिद्वार हैं तो सत्संग गंगा-स्नान है महानुभावों! गंगा में डुबकी लगाने का इतना ही अर्थ है कि गंगा जैसी पवित्रता हमारे जीवन में भी सदा बनी रहे। मुनि श्री कहते हैं कि संत सिद्धांत नहीं, अनुभव देता है; शास्त्र-ज्ञान नहीं, जीवन का सत्य देता है। संत-मुनियों से शास्त्रों के विषय में नहीं अपितु जीवन के विषय में पूछना चाहिए। संत जीवन में अनुभव बटोरते हैं और अमृत बाँटते हैं। संत इस जगत की प्राणप्रतिष्ठा हैं। आगे मुनि श्री ने धर्मग्रंथों की बढ़ती उपेक्षा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आजकल घरों में उपन्यास, अश्लील पत्रिकाओं को तो खूब संभाल कर रखा जाता है पर धर्मग्रंथों व उनके कटे-फटे पन्नों को संभालने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। घर में जिनवाणी व संत-साहित्य अवश्य होना चाहिए क्योंकि संत-समागम सदा उपलब्ध नहीं होता। संत का संग ही सत्संग है। जिस घर में जिनवाणी स्थापित होती है, उस घर में रहने वाले लोगों की मति कभी भ्रष्ट नहीं होती। मति भ्रष्ट होते ही जीवन में विपत्तियों व संकटों का जमाव होना आरम्भ हो जाता है। अगर प्रभु किसी को दंड देता है तो वह दंड सुनाने तुम्हारे घर न...

स्वार्थ का यह संसार

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज स्वार्थ का यह संसार इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी स्वार्थ के धागे में लिपटा हुआ है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के स्वार्थ टकराते हैं तब जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव पैदा होता है। काश! मनुष्य संसार की रचना की सच्चाई को पहले ही समझ ले ताकि उसे जीवन रूपी पिटारों के खुलने पर सिर न फोड़ना पड़े। ताँगे में जुतने वाला घोड़ा जब तक दौड़ने की ताकत रखता है, तब तक मालिक उसे चना खिलाता है और जिस दिन उसकी दौड़ने की शक्ति खत्म हो जाती है उस दिन उसे भूसा भी नहीं डाला जाता। अपने क्षुद्र स्वार्थ के कारण यहाँ हर आदमी दूसरे को ठगता है और दूसरों के द्वारा ठगा भी जाता है। अपने स्वार्थ के अनुसार ही सभी के व्यवहार, चेहरे की मुस्कान और बोलचाल की भाषा बदलती रहती है।     जोधपुर के नरेश जसवंत सिंह जी एक न्याय प्रिय और प्रजावत्सल राजा हुए हैं। उनके जीवन की नीति थी - सबके सुख में अपना सुख मानना। अतः वे प्रति क्षण दूसरों का भला करने के लिए जागरूक रहते थे। वे स्वभाव से बहुत सरल एवं मृदुभाषी थे। वे राजस्थानी भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे। एक बार उन्होंने सोचा ...