शास्त्र

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

शास्त्र

महानुभावों! ”जो देवों का कहा हुआ हो, जिसका कोई खण्डन न कर सके, जिसका किसी के द्वारा उल्लंघन न किया गया हो, तर्क अनुमान से बाधित न हो, कुमार्ग का खण्डन करने वाला हो, इन लक्षणों से युक्त जो शास्त्र हो, वही सच्चा शास्त्र कहलाता है।“

जैन दर्शन में शास्त्र को दूसरे शब्दों में ‘जिनवाणी’ भी कहते हैं।

जब हम बच्चे होते हैं तो अपने माता-पिता के द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वह किसी शास्त्र में से पढ़ कर नहीं दिया जाता अपितु उनके अपने अनुभव के आधार पर व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है। स्कूल में अध्यापक हमें लौकिक शिक्षा देते हैं पर आगम का ज्ञान केवल ‘जिनवाणी माता’ के माध्यम से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों का अध्ययन करने से हमें भेद विज्ञान का बोध होता है कि यह शरीर अलग है और आत्मा अलग है।

जैन धर्म में शास्त्रों को चार खण्डों में विभक्त किया गया है - प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग।

प्रथमानुयोग - वे शास्त्र, जिनमें त्रेसठ श्लाका महापुरुषों के जीवन का वर्णन हो।

चरणानुयोग - वे शास्त्र, जिन ग्रन्थों में मुनि धर्म एवं श्रावक धर्म का वर्णन हो, जैसे - श्रावकाचार आदि।

करणानुयोग - वे शास्त्र, जिनमें तीन लोक के आकार एवं गणित का वर्णन हो, जैसे - त्रिलोकसार आदि।

द्रव्यानुयोग - वे शास्त्र, जिनमें षड् द्रव्य, सप्त तत्व, नौ पदार्थ आदि का वर्णन हो जैसे - समयसार आदि।

इस प्रकार हमारे आचार्यों ने महावीर की वाणी को, केवलियों की वाणी को लिपिबद्ध करके हमें वह धरोहर प्रदान की है जिससे ज्ञान प्राप्त करके हम भी आत्मा का कल्याण करके मोक्ष-मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

अन्त में जिनवाणी माता की स्तुति करते हुए इतना ही कहूँगा -

”जा वाणी के ज्ञान से, सूझे लोकालोक।

सो वाणी मस्तक धरूँ, सदा देत हूँ धोक।।“                             

जिनवाणी माता की जय!


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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