ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी आवश्यक है

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी आवश्यक है

महानुभावों! ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी अति आवश्यक है अन्यथा यह दीपक राग-द्वेष की हवा से बुझ जाएगा। क्षमताओं के विकास के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता है पर कुछ लोगों को स्वयंमेव ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उन्हें शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। मुनि श्री कहते हैं कि ज्ञानी का 24 घंटे स्वाध्याय चलता रहता है क्योंकि उसकी प्रत्येक क्रिया सावधानीपूर्वक होती है। 

ज्ञानी भोक्ता होते हुए भी भोग विलासिता का दास नहीं होता बल्कि उदास होकर ज्ञान की ओर बढ़ता है। अज्ञानी को कषाय करने में आनंद आता है। ज्ञानी को कषाय जीतने में आनंद आता है। अज्ञानीजन शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग-बहिरंग में ही दंग रह जाते हैं। अंतरंग में वे उतरते ही नहीं।

ज्ञानीजन आत्मा के साथ ही मिलन-मिलाप रखते हैं, उसी के साथ संबंध बनाए रखते हैं। अज्ञानीजन परिजनों को ही अपना अहितकारी व शत्रु मानते हैं पर ज्ञानीजन निज कर्मों को एवं अशुभ भावों को ही अपना शत्रु मानते हैं। मुनि श्री ने आगे कहा कि जैसे एक माँ अपने बेटे से अनुराग तो रखती है पर समय आने पर उसे ऊँची उड़ान के लिए छोड़ देती है और भूल जाती है, उसी तरह ज्ञानी व्यवहार की दृष्टि से तो सब कार्य करता है पर उसकी दृष्टि स्वयं की ओर होने पर वह व्यवहार को छोड़ देता है और उसे भूल जाता है।

जिस प्रकार चक्रवर्ती षट्खंड पर विजय प्राप्त करके भी अयोध्या में ही रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी भले ही छः द्रव्यों का ज्ञान प्राप्त कर ले पर वह जीव-द्रव्य आत्म-तत्व में ही रमण करता है। जैसे जल से बाहर आते ही मीन तड़पने लगती है, वैसे ही ज्ञानी बाह्य जगत में आते ही छटपटाने लगता है। वह तो सदा आत्म-तत्व के आनंद में ही डूबे रहना चाहता है।

ज्ञानी को शरीर के स्तर पर कोई वेदना या पीड़ा नहीं होती। यह तो पुद्गल के परिणमन का मोटा भाग है। वह जानता है कि जैसे सर्कस में दहाड़ता हुआ शेर भी रिंग मास्टर को नहीं खा सकता क्योंकि शेर का नियंत्रण उसके हाथों में है उसी प्रकार ये दहाड़ते हुए कर्म रूपी सिंह मेरी जीवात्मा का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

अंत में मुनि श्री अपने प्रवचन का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि ज्ञान वही श्रेष्ठ है जो जन्म-मरण का क्षय करता है। संयम से रहित कर्म-कांड मन, वचन, काय की चेष्टा में कमी करने वाला होता है। जो ज्ञान मन, वचन, काय के कर्म-कांड में कमी नहीं लाता, वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं, मात्र थोपा हुआ बाहरी ज्ञान है जिस पर संयम रूपी चिमनी नहीं लगी हुई है। संयम वह चिमनी है जो ज्ञान रूपी चिमनी की लौ को राग-द्वेष रूपी हवा से बचाए रखती है और उसे बुझने नहीं देती।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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