धर्म

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

धर्म

महानुभावों! धर्म क्या है? 

‘वस्तु का स्वभाव ही धर्म है’।

जिस प्रकार चन्द्रमा का स्वभाव शीतल है, सूर्य का उष्ण है, पानी का ठण्डा है, अग्नि का गर्म है। यह सबका अपना-अपना स्वभाव है। कोई अपना स्वभाव या अपना धर्म नहीं छोड़ता, जैसे पानी को कितना भी गर्म कर लो, वह वातावरण के संयोग से कुछ समय बाद स्वयं ही ठण्डा हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव भी दयामय, करुणा व वात्सल्य से परिपूर्ण है मगर मनुष्य अपने स्वभाव को बहुत जल्दी छोड़ देता है। जैसे मनुष्य का स्वभाव है - क्षमा को धारण करना, पर ज़रा सा निमित्त मिलते ही वह क्रोधित हो जाता है। महाराज श्री कहते हैं कि हमें भी अन्य वस्तुओं व प्राणियों की तरह अपने स्वभाव को, अपने धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए।

बहुत से लोग पूजा-पाठ, जाप, स्वाध्याय, तप आदि को ही धर्म मानते हैं। मगर महाराज श्री कहते हैं कि ये सब धार्मिक क्रियाएं भी मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ये साधना की सीढ़ी के साधन हैं। जिस प्रकार मंज़िल और मार्ग में अन्तर होता है, उसी प्रकार धर्म और धार्मिक क्रियाओं में अन्तर होता है। हमारी आत्मा का स्वभाव है - जानना और देखना, पर हम क्या जानते हैं और क्या देखते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। 

गुरुवर कहते हैं कि सम्यक्दृष्टि जीव शुभ ही देखता है, अवगुणों में भी गुण खोज लेता है और मिथ्यादृष्टि को गुण दिखाई ही नहीं देते। उसका ध्यान अवगुणों पर ही जाता है। सम्यक्दृष्टि छाज की तरह होता है और मिथ्यादृष्टि छलनी की तरह होता है। सम्यक्दृष्टि केवल सार को ग्रहण करता है और निःसार का त्याग करता है। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि सार को छोड़कर निःसार का ही संग्रह करता है और संसार सागर में गोते लगाता रहता है। 

गुरुवर कहते हैं कि जीवन में जीविका के पीछे मत भागो। जीविका के पीछे भागोगे तो न धन रहेगा और न धर्म। धर्म का आचरण करोगे तो धर्म के साथ-साथ पुण्य सम्पदा के रूप में धन भी मिलेगा। सुबह सवेरे अपने जीवन की शुरुआत धर्म के साथ करो। चाहे धार्मिक क्रियाएं थोड़े समय के लिए ही करो पर आत्मा को परमात्मा के दर्शन तो कराओ। इसके प्रतिफल के रूप में हमारे अंदर से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि कषाय कम होने लगेंगे। जब तक हम इन कषायों को कम नहीं करते तब तक हमारा मन्दिर जाना व्यर्थ है। अपनी आत्मा में निहित क्षमा, प्रेम, करुणा, दया आदि गुणों को विकसित करो।

एक छोटा सा दृष्टांत सुनाता हूँ - एक साधु गंगा जी के बीच में खड़े होकर स्नान कर रहे थे। इतने में उनकी दृष्टि जल में बहते हुए एक बिच्छू पर पड़ी। उनका हृदय करुणा से द्रवित हो गया और उन्होंने उसे उठा कर अपनी हथेली पर रख लिया ताकि उसकी जान बचा सकें। पर बिच्छू ने भी अपने स्वभाव के वशीभूत होकर उनकी हथेली पर डंक मार दिया। साधु पीड़ा से तिलमिला उठा और जैसे ही उनकी हथेली में कम्पन हुआ, वह बिच्छू पानी में गिर पड़ा और पानी के साथ बहने लगा। दयालु साधु ने पानी में थोड़ा आगे बढ़ कर उसे उठा लिया और अपनी हथेली की शरण दी। बिच्छू ने भी अपने स्वभाव के अनुसार फिर उनकी हथेली पर डंक मार दिया। दोबारा डंक लगने से साधु का सिर चकराने लगा। साधु का सारा शरीर हिलने लगा और वही हुआ जो पहले हुआ था। साधु का शरीर हिलते ही वह बिच्छू फिर पानी में गिर पड़ा। लेकिन जब बिच्छू ने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा तो वे तो साधु थे। वे अपना स्वभाव कैसे छोड़ देते? 

एक आदमी यह दृश्य देख रहा था। उसने कहा कि महाराज! आप इस विषधर को क्यों बार-बार बचा रहे हो? यह अपनी डंक मारने की आदत को नहीं छोड़ सकता। इस का तो मरना ही अच्छा है।

तब साधु ने हँसते हुए कहा कि जब बिच्छू ने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा तो मैं अपनी आदत कैसे छोड़ दूँ? मैं अपना काम कर रहा हूँ यह अपना काम कर रहा है इसीलिए कहते हैं कि अभी से आदत डाल लो धर्म-ध्यान की, पूजा-पाठ की, अंत तक काम आएगी।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमें अपने धर्म को, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ना चाहिए और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए नित्यप्रति साधना करते रहना चाहिए। यही हमारा धर्म है। 

हे गुरुवर! जिस प्रकार आप अपनी कषायों को जीत कर राग-द्वेष से परे हो गए हो, उसी प्रकार हमें भी  आशीर्वाद दो कि हम अपनी आत्मा को कसें ताकि मानवता के स्वाभाविक गुण हमारे अंदर आएं और हम भी अपना कल्याण कर सकें। कषाय रूपी विष से हम स्वयं को विषाक्त होने से बचाएं।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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