पर्वः कषाय-विजय के साधन
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
पर्वः कषाय-विजय के साधन
महानुभावों! जैन जगत में चतुर्दशी का विशेष महत्व है। आज लोग अनेक प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान रखकर आत्म-उन्नति के मार्ग में आगे बढ़ते हैं। वैसे तिथियों और मुहूर्तों में कोई अतिरिक्त विशेषता नहीं होती पर यह सिद्धांत भी सर्वमान्य है कि समय और परिवेश का भी प्रभाव होता है। उससे वही लाभान्वित हो सकता है जिसका विवेक जागृत हो जाता है। विवेक-जागृति के अभाव में कोई भी विशेष तिथि या मुहूर्त मनुष्य का हित नहीं कर सकता।
यदि हम अपने आज को सफल बनाना चाहते हैं तो हमें अपने कर्त्तव्य का बोध होना चाहिए। मैं तो यही कहूँगा कि आज के दिन सब को कर्त्तव्यनिष्ठ बनना चाहिए। बनेंगे तो बाद में, पहले आप सब यह जान लें कि कर्त्तव्यनिष्ठा क्या होती है? इसका तात्पर्य समझने के बाद ही हम कर्त्तव्यनिष्ठ बन सकते हैं। आज मैं यहाँ उपस्थित साधु-साध्वी समाज और श्रावक-श्राविका समाज से यही कहना चाहता हूँ कि हम तभी कर्त्तव्यनिष्ठ बन सकेंगे जब हम कषायों पर विजय प्राप्त कर लेंगे।
वास्तव में कषाय है क्या? इसमें एक सांकेतिक अर्थ छिपा हुआ है। मन के जो भाव आत्मा को कसे, उसे बन्धन में डाले; वे कषाय भाव हैं। यहाँ कषाय का मतलब क्रोध, अभिमान, दम्भचर्या व लालच इन चार दुर्गुणों से है। ये पर्व हमें संयम के मार्ग पर चलना सिखाते हैं और कषाय-विजय का उपाय बताते हैं।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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