स्वार्थ का यह संसार
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
स्वार्थ का यह संसार
इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी स्वार्थ के धागे में लिपटा हुआ है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के स्वार्थ टकराते हैं तब जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव पैदा होता है। काश! मनुष्य संसार की रचना की सच्चाई को पहले ही समझ ले ताकि उसे जीवन रूपी पिटारों के खुलने पर सिर न फोड़ना पड़े।
ताँगे में जुतने वाला घोड़ा जब तक दौड़ने की ताकत रखता है, तब तक मालिक उसे चना खिलाता है और जिस दिन उसकी दौड़ने की शक्ति खत्म हो जाती है उस दिन उसे भूसा भी नहीं डाला जाता। अपने क्षुद्र स्वार्थ के कारण यहाँ हर आदमी दूसरे को ठगता है और दूसरों के द्वारा ठगा भी जाता है। अपने स्वार्थ के अनुसार ही सभी के व्यवहार, चेहरे की मुस्कान और बोलचाल की भाषा बदलती रहती है।
जोधपुर के नरेश जसवंत सिंह जी एक न्याय प्रिय और प्रजावत्सल राजा हुए हैं। उनके जीवन की नीति थी - सबके सुख में अपना सुख मानना। अतः वे प्रति क्षण दूसरों का भला करने के लिए जागरूक रहते थे। वे स्वभाव से बहुत सरल एवं मृदुभाषी थे। वे राजस्थानी भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे।
एक बार उन्होंने सोचा कि मेरा इकलौता नौजवान कुँवर आज्ञाकारी है या नहीं इसका परीक्षण करना चाहिए। एक दिन उन्होंने कुँवर को बुलाया और कहा - ‘‘कुँवर! मैं जैसा कहूँगा क्या तुम वैसा ही करोगे?’’
पुत्र ने हाथ जोड़कर नम्रभाव से कहा - ‘‘पिताजी! मैं कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा। कृपया आप आज्ञा फरमाइये।’’
राजा ने पुनः कहा - ‘‘कुँवर! क्या तुम मेरे आदेश का अक्षरशः पालन करोगे?’’ कुँवर ने कहा - ‘‘पिताजी! मैं दृढ़ निष्ठा के साथ आपको यह विश्वास दिलाता हूँ कि मैं रंचमात्र भी आपके आदेश को इधर से उधर नहीं करूँगा।’’
तब राजा ने आश्वस्त होकर कहा - ‘‘बेटा! मेरी हार्दिक इच्छा है कि जिस दिन मेरा देहावसान हो जाए उस दिन जो कपड़े और आभूषण मेरे तन पर हो उन सबको उतारना मत और उस दिन जो कपड़े और आभूषण मेरे तन पर हो, उनकी अदला-बदली भी न करना। जैसा का तैसा ही मुझे चिता पर लिटा देना अर्थात् उन कपड़ों व आभूषणों सहित मुझे जला देना। उस समय कोई तुम्हें कितना ही समझाए किन्तु तुम किसी की भी मत सुनना।’’
कुँवर ने कहा - ‘‘पिताजी! इस आदेश का मैं पूर्णतया ध्यान रखूँगा। जैसा आपने कहा है ठीक वैसा ही होगा। इसमें तनिक मात्र भी अंतर नहीं होने दूँगा।’’
राजा ने कुँवर का परीक्षण करने का निर्णय किया। उन्हें योगिक क्रियाओं का अच्छा अभ्यास होने से वे श्वास रोकने की क्रिया में माहिर थे। कुछ महीनों बाद एक दिन राजा ने बहुमूल्य कपड़े तथा आभूषण पहनकर कुँवर को बुलाया। जैसे ही कुँवर ने प्रवेश किया, वे बोले - ”कुँवर! आज मेरे शरीर में काफी बेचैनी है, श्वास रुक-रुक कर आ रहा है। पेट में काफी दर्द है और सिर पीड़ा से फटा जा रहा है। न जाने किस पाप का फल मुझे मिल रहा है जो किसी भयंकर रोग ने मेरे शरीर पर आक्रमण कर दिया है।“
यों बात करते-करते महाराज जसवन्त सिंह ने श्वास रोक लिया और आँखें स्थिर करके जमीन पर लुढ़क गए। शरीर निश्चेष्ट सा हो गया। मुख में झाग आ गया। नाड़ी भी पकड़ में नहीं आ रही थी। कुँवर को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि पिताजी का तो स्वर्ग वास हो गया है।
राजमंत्री उसी समय वहाँ उपस्थित हुए तो कुँवर ने मंत्री से कहा - ‘‘मंत्रीवर! कुछ दिन पहले मुझे पिताजी ने कहा था कि जिस दिन मेरा देहावसान होगा उस दिन शरीर पर रहे बहुमूल्य कपड़ों एवं आभूषणों को उतारना मत। मुझे उनके साथ ही जला देना।
मंत्रीवर! इस समय मैं सोच रहा हूँ जो होना था सो हो गया। आयुष्य की डोरी टूट जाने के बाद उसे पुनः जोड़ा नहीं जा सकता। अब पिताजी नहीं रहे तो उनकी काया मिट्टी हो गई। यदि ये बहुमूल्य वस्त्राभूषण नहीं निकालेंगे तो यह सब व्यर्थ ही काया के साथ जल जाएँगे। अतः मेरी इच्छा है कि ये सब वस्त्राभूषण उतारकर उन्हें दूसरे अल्प-मूल्य वाले वस्त्राभूषण पहना दिए जाएं जिससे राज्य का अधिक नुकसान न हो। यूँ भी ये वस्त्र और आभूषण मुझे बहुत पसंद हैं। यदि निकाल लेंगे तो मेरे पहनने के काम आ सकेंगे। इस समय यहाँ पर आप और मैं यानि हम दोनों ही उपस्थित हैं। अतः हमें यह कार्य फौरन कर लेना चाहिए। उसके पश्चात् हम सारी प्रजा को इनकी मृत्यु का समाचार देंगे।’’
यह सारी बातें राजा सुन रहा था और सोच रहा था कि इस संसार में मानव का स्वार्थ कितना गहन है।
तभी तो महापुरुष कहते हैं -
‘‘स्वार्थ का यह संसार’’
इस संसार में जब ऐसी स्वार्थ भरी बातें देखने व सुनने को मिलती हैं तभी मोह का त्याग होता है। जैसे कोई आदमी अचानक निद्रा से उठता है उसी तरह राजा योग निद्रा से उठे और आँखें खोली। मुस्कुराते हुए वे दो पंक्तियाँ गुनगुनाने लगे -
”खाया सो तो खो दिया
दीधां चाल्या सत्य।
जसवंत घर पोढ़ाविया,
माल विराणे हत्थ।“
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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