गुरु
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
गुरु
”पिच्छी लेकर नग्न रहे, और केश लोच जो करते हैं,
तन शृंगार रहित वे होकर, बाइस परिषह सहते हैं,
स्व आत्म कल्याण करें, और पर को मार्ग बताते हैं,
सुलझाते वो मन की ग्रन्थियां, सतगुरु वो कहलाते हैं।"
गुरु अर्थात् ‘गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने वाले’, जो गुणातीत, रूपातीत व रसातीत हैं। कहते हैं कि इंसान का जन्म एक बार तब होता है जब वह माँ के गर्भ से जन्म लेता है और दूसरा जन्म तब होता है जब गुरु उसमें दीक्षा के संस्कार डालते हैं। पहले जन्म में, जब इंसान माँ के गर्भ से जन्म लेता है, तब वह मिट्टी का कच्चा घड़ा होता है और दूसरे जन्म में, जब गुरु उसमें दीक्षा के संस्कार डालते हैं, तब वह पक कर मज़बूत हो जाता है।
जिस प्रकार दूध के दाँत पहले मुलायम होते हैं और ज़रा सा लड्डू खाते ही टूट जाते हैं पर एक बार टूटने के बाद जब दूसरी बार दाँत आते हैं तो इतने मज़बूत बन जाते हैं कि पत्थर को चबाने की शक्ति भी आ जाती है। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि हमें गुरु-शरण मिल जाए तो हम भी स्वयं को मज़बूत बना कर, अपने जीवन की उपयोगिता को समझ कर उसे सार्थक कर सकते हैं क्योंकि गुरु ही वह कुम्भकार है जो कच्ची मिट्टी को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।
गुरु ही वह शिल्पी है जो अनगढ़ पत्थर को आकृति प्रदान करते हैं। जिस प्रकार मेघ आकाश में छा जाते हैं, जल वृष्टि करते हैं और हमें बाह्य रूप से भिगोकर चले जाते हैं; उसी प्रकार गुरु भी मेघ के समान कुछ समय के लिए हमारे नगर में आते हैं, दिव्य-वाणी रूपी जल वृष्टि से हम सबको सराबोर कर देते हैं। अन्तर है तो केवल इतना ही कि जल वृष्टि हमारे तन को भिगोती है और गुरु की दिव्य-वाणी की फुहारें हमारी आत्मा को भी भिगो देती हैं।
जिस प्रकार मेघ के जाने के बाद जब सूर्य उदय होता है तो जगत का अंधकार स्वयमेव ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गुरु की वाणी से हमारी आत्मा पर आच्छादित पाप रूपी अंधकार स्वतः ही दूर हो जाता है और निर्मल आकाश की तरह हमारा मन भी निर्मल और पावन परिलक्षित होने लगता है। एक नया उत्साह, एक नई उमंग का आगमन होता है।
महानुभावों! ”गुरु संस्कारों की पाठशाला है, गुरु के अनुपद चलना शिष्टाचार है। गुरु अमृत की खान है, गुरु तो एक दरवाज़ा है, जो प्राणी अनादिकाल से संसार रूपी भव-वन में भटक रहे हैं, उनके लिए बाहर निकलने का। गुरु आसमां है तो शिष्य जमीं, गुरु कुम्भकार है तो शिष्य मिट्टी। गुरु शिख हैं तो शिष्य नख।“ हे गुरुवर! अंत में इतना ही कहूँगा -
”वीतराग निर्ग्रन्थ मुनि, गुरुवर तुम सर्वज्ञ।
कैसे गुण तुमरे कहें, हम गुरुवर अल्पज्ञ।।“
सभी दिगम्बर निर्ग्रन्थ मुनिराजों के चरणों में शत् शत् नमोस्तु।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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