क्षमा

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

क्षमा

महानुभावों! क्षमा हमारी आत्मा का स्वभाव है। 

यह हमारी आत्मा का सर्वोत्कृष्ट गुण है। जो व्यक्ति सहनशील होते हैं वे ही क्षमा को धारण कर सकते हैं। जैसे धरती और वृक्ष जितना भार वहन करते हैं, उतने ही महान् बनते जाते हैं। धरती सबकी ठोकरों को सहन करती है फिर भी प्रतिकार नहीं करती। यह धरती की महानता है। वृक्ष गर्मी, सर्दी, वर्षा की बाधाओं को सहन करते हैं फिर भी उन पर मीठे फल ही लगते हैं। इतना ही नहीं, यदि कोई वृक्ष पर पत्थर भी मारे तो भी वे मीठे फल ही देते हैं। 

क्षमा कोई सप्रयास किया जाने वाला भाव नहीं है। यह अंतरंग का स्वभाव है। क्षमा कोई ओढ़नी नहीं है जिसे ऊपर से ओढ़ लिया जाए वरन् यह हमारी आत्मा का गुण है जो हमारी आत्मा में रचा बसा हुआ है।

क्षमा कई परिस्थितियों में की जाती है। एक तो जब स्थिति हमारे अनुकूल नहीं होती, तब हमारे पास क्षमा करने के सिवाय कोई उपाय नहीं होता। दूसरी स्थिति में व्यक्ति स्वार्थवश भी क्षमा का चोला ओढ़ लेता है। मगर यह वास्तविक क्षमा नहीं कहलाती। वास्तविक क्षमा तो तब कहलाती है जब मन में क्रोध की भावना उत्पन्न ही न हो, वहाँ केवल क्षमा का ही साम्राज्य हो। 

गुरुवर कहते हैं कि जब तुम्हारे सामने क्रोध का निमित्त आकर खड़ा हो जाए तो उस समय सामने वाले व्यक्ति के प्रति क्षमा भाव धारण कर लो या दस तक उल्टी गिनती पढ़नी आरम्भ कर दो या एक गिलास ठण्डा पानी पी लो। कहने का तात्पर्य यह है कि कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपनी सहनशक्ति का परिचय देते हुए क्षमा को धारण करो क्योंकि कहा भी गया है कि क्रोध पर क्षमा से ही विजय प्राप्त की जा सकती है। जैसे हिंसा को अहिंसा से, अग्नि को पानी से, वैर को प्रेम से, दुश्मन को जय-जिनेन्द्र बोलकर जीता जा सकता है, वैसे ही दूसरों के हृदय को क्षमा से जीता जा सकता है। 

गुरुवर कहते हैं कि जो अपनी निन्दा करने वाले को क्षमा कर देता है, वही वास्तव में सच्चा साधक है। कर्म बंध से बचने के लिए हमें किसी से वैर-भाव नहीं रखना चाहिए क्योंकि यह वैर-भाव महा दुःखदायी है। हमारे शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरण दिए गए हैं जिनसे यही शिक्षा मिलती है कि वैर की गाँठ खोलनी है तो क्षमा भाव धारण करनी ही पड़ेगी।

जिस प्रकार कमठ ने क्रोध में आकर वैर बांधा तो दस भव तक भी अपना कल्याण नहीं कर सका मगर भगवान पार्श्वनाथ ने हर भव में क्षमा भाव धारण किया तो स्वयं का तो कल्याण हुआ ही, साथ ही दस भव से चले आ रहे वैरी कमठ के हृदय को भी जीत लिया। वे उपसर्ग विजेता कहलाए। कमठ ने भी भगवान के चरणों में आकर अपना कल्याण किया। हे गुरुवर! इसी प्रकार निमित्त मिलने पर भी मेरे हृदय में क्रोध प्रवेश न कर पाए, इन्हीं भावनाओं के साथ हम क्षमा भाव को धारण करें।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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