दुःख - सुख
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
दुःख - सुख
महानुभावों! दुःख-सुख क्या हैं? ये जीवन के दो पहलू ही तो हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं या गाड़ी के दो पहिए होते हैं, मनुष्य के दो पैर होते हैं। दुःख-सुख दोनों एक साथ नहीं रह सकते। ये तो छाँव-धूप की तरह आते-जाते रहते हैं। कभी जीवन में सुख रहता है तो कभी दुःख। अब यह जानना भी आवश्यक है कि आखिर ये दोनों हैं क्या? सुख दो प्रकार का होता है - बाह्य सुख और आत्मिक सुख।
मनुष्य जो सुख भोग-विलास में या रिश्ते-नातों में खोजता है वह बाह्य सुख है। वह सोचता है कि मेरा घर, मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरे माता-पिता से ही मुझे सुख मिलता है। घर परिवार अच्छा है, पत्नी आज्ञाकारी है, बच्चे मुझे सम्मान देते हैं तो मैं सुखी हूँ। मगर ज़रा ध्यान से सोचो कि क्या यह सच्चा सुख है? क्या यह सुख स्थाई है? नहीं, यह सुख सदा रहने वाला नहीं है। यदि पत्नी के साथ ज़रा सा विवाद हो गया या बच्चों ने पलट कर जवाब दे दिया तो एक पल में यह सुख, दुःख में बदल जाएगा।
इंसान हर क्षेत्र में अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में ही लीन है। वह यह नहीं देखता कि मेरे पास क्या है बल्कि इसी उधेड़ बुन में लगा रहता है कि मेरे पड़ोसी के पास क्या है जो मेरे पास नहीं है। वह इतना सुखी कैसे दिखाई दे रहा है? बस! इसी दुःख के साथ वह अपनी सारी ज़िन्दगी बिता देता है।
इंसान अपनी इन्द्रियों के पोषण हेतु तरह-तरह की सामग्री एकत्रित करता है पर सोचो कि क्या हम इन सुख-साधनों से कभी इन्द्रियों को तृप्त कर सकते हैं? नहीं, आज हमारे पास जो है वह कल नष्ट होने वाला है। उसके संयोग से आज हम स्वयं को सुखी अनुभव कर रहे हैं तो कल उसके वियोग में दुःखी हो जाएंगे। अतः संसार में चिर स्थाई सुख खोजने से भी नहीं मिलेगा। क्योंकि सच्चा सुख तो आत्मा को जानने में, उसमें रमण करने में ही है।
जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, विषय-कषायों से नाता तोड़ लिया है और भगवान से नाता जोड़ लिया है वही सच्चे सुख का अनुभव कर सकता है। जिसने यह जान लिया है कि शरीर नश्वर है और आत्मा अनश्वर है, अमर है, शाश्वत है, आत्मा में ही सच्चा सुख है, वही व्यक्ति सुखी रह सकता है। अन्यथा सांसारिक भोग-विलास और विषय कषायों में तो दुःख के सिवा कुछ भी नहीं है।
तृष्णा दुःख का कारण है और सन्तोष सुख की अनुभूति कराता है।
मेरी भावना में कहा भी गया है - ”देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव धरूँ। “
जिस प्रकार काँटों से ही फूल का महत्व है, कठोरता से ही कोमलता का महत्व है, उसी प्रकार दुःख से ही सुख का महत्व है, बुराई से ही अच्छाई का महत्व है। जब तक हमें जीवन में दुःखों का अनुभव नहीं होगा, तब तक हमें सुख की अनुभूति भी नहीं हो सकती। सुख-दुःख एक दूसरे के साथ आँख-मिचौली खेलते रहते हैं। महाराज श्री कहते हैं कि ”जहाँ दुःखों का अन्त होता है वहीं से सुखों की शुरुआत होती है।“ अतः मनुष्य को दुःखों से घबराना नहीं चाहिए अपितु विपत्ति के समय साहस से उनका सामना करना चाहिए। हमेशा साम्य भाव रखना चाहिए। न तो दुःख आने पर आर्तध्यान करें, न सुख आने पर रौद्रध्यान करें। दोनों में साम्य भाव रखते हुए धर्मध्यान में लीन रहें।
पूज्य गुरुवर मुझे भी यही आशीर्वाद दें कि मैं भी सुख-दुःख के समय साम्य भाव रखते हुए धर्मध्यान में लीन रहूँ। इसी भावना के साथ महाराज श्री के चरणों में शत् शत् नमन।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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