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Showing posts from November, 2023

जीवन में गति है पर दिशा नहीं

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जीवन में गति है पर दिशा नहीं (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) हम जीवन में सुबह से शाम तक दौड़ रहे हैं, लेकिन जाना कहाँ है, यह हमें मालूम नहीं है। हमारी यह दौड़ हमें कहीं नहीं पहुँचा पाती। जब तक हम अपनी दौड़ की दिशा को नहीं जानेंगे, तब तक हमारी दशा में भी परिवर्तन संभव नहीं है। दशा बदलनी है तो दिशा भी बदलनी होगी। हमें अपने जीवन को एक सही दिशा देनी होगी। जीवन का लक्ष्य निर्धारण करना होगा। स्वयं के बारे में सोचना होगा कि आखिर हम सब यह क्यों कर रहे हैं? हम किसी को दगा देना चाहते हैं या उसे सगा बनाना चाहते हैं। किसी को ऊपर उठाना चाहते हैं या नीचे गिराना चाहते हैं। किसी की निंदा करना चाहते हैं या उपासना करना चाहते हैं। किसी को आराध्य बनाना चाहते हैं या सेवक बनाना चाहते हैं। किसी के चरणों में अपना मस्तक झुकाना चाहते हैं या अपने चरणों में उसका मस्तक झुकाना चाहते हैं। हमारे जीवन का हेतु क्या है? हम यह सब क्यों करना चाहते हैं? इसे करने से क्या लाभ होगा? लक्ष्यहीन मानव भटकता रहता है। जैसे हवाएं अनंत आकाश में भटकती रहती हैं, बहती रहती हैं, किसी भी सुगंधित या दुर्गंधयुक्त पदार्थ...

अकाल मौत

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अकाल मौत (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) किसी की मौत अकाल मौत कब बनती है? क्यों बनती है? किसकी और कैसे बनती है? किसकी नहीं बनती और इसे टालने के क्या उपाय हैं? जन्म के साथ मौत का और मौत के साथ जन्म का संबंध ऐसा ही है, जैसे पिता और पुत्र का। जब तक निर्वाण की उपलब्धि नहीं हो जाती, तब तक जन्म और मृत्यु का झंझट लगा ही रहेगा और जब तक मृत्यु का झंझट है, तब तक अकाल मौत का संकट भी बना ही रहेगा। अकाल मौत किसी की कुंडली में या कर्म में नहीं लिखी होती, लेकिन किसकी होगी, कहाँ होगी, कब होगी; यह भी तय नहीं होता। अतः अकाल मौत होनहार घटना नहीं, बल्कि अनहोनी घटना है। हमारा जन्म पाप-पुण्य के भावों के कारण हुए कर्मबन्ध के कारण होता है। जैन दर्शन में शरीर नामकर्म नाम का एक कर्म है, जिसमें शरीर की रचना होती है। यह कर्म जब तक रहेगा, तब तक जन्म-मरण होता ही रहेगा। अतः जन्म-मरण की संतति हमारी इच्छाओं पर निर्भर करती है। जन्म के साथ मरण होना नियति है जैसे सुबह के बाद शाम होना। हमारा जन्म पूर्व कर्मों के कारण होता है और मरण आयु के बंध के कारण होता है। अकाल मौत नाम का कोई कर्म नहीं होता। यह ...

जीवन की गाड़ी

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जीवन की गाड़ी (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) जिस जीवन की गाड़ी में एक पहिया ट्रैक्टर का और एक पहिया साइकिल का हो, तो सोचो कि वह यात्रा कैसे चलेगी? पुण्य और पाप - ये जीवन को चलाने वाले दो तत्व हैं अर्थात् दो पहिए हैं। जीवन की गाड़ी इन्हीं दो पहियों से चलती है। मैं जानना चाहता हूँ कि जिस गाड़ी में एक पहिया ट्रैक्टर का हो और दूसरा पहिया साइकिल का हो तो वह गाड़ी कितने दिन चलेगी, कितनी तेज चलेगी और किस गति से चलेगी? आज हमारे जीवन के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हमारे जीवन का एक पहिया ट्रैक्टर का है, जिसका नाम है पाप और दूसरा पहिया साइकिल का है, जिसका नाम है पुण्य। हमारे पाप का पहिया बहुत बड़ा है और पुण्य का पहिया कमज़ोर है। अब क्या होगा? या तो पाप के पहिए को छोटा करना पड़ेगा, या पुण्य के पहिए को बड़ा करना पड़ेगा। ज़रूरत है पुण्य के पहिए को बड़ा करने की, ताकि जीवन की यात्रा सुखद व आनंदवर्धक हो सके। कहते हैं कि अच्छे खासे जीव की गाड़ी भी आज खटारा बन कर रह गई है, जिसमें हॉर्न के अलावा सब कुछ बजता है और पहिए के अलावा सब कुछ हिलता है। आज का आदमी पाप को केवल बढ़ा ही नहीं रहा, बल्कि पाप...

भक्तामर काव्य - अक्षरों का अद्भुत चमत्कार

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भक्तामर काव्य - अक्षरों का अद्भुत चमत्कार (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) भक्तामर काव्य की समग्र रचना बहुत प्यारी व कल्याणकारी है। इसके प्रत्येक काव्य की प्रत्येक पंक्ति में अंगोपांग यानी 14 अक्षर हैं। एक काव्य में 46 अक्षर हैं और पूरे काव्य में 2688 अक्षर हैं। इन अक्षरों का एक अद्भुत चमत्कार है, जो आज भी इसका पाठ करने वाले भक्तों को चमत्कृत कर देता है। पहला काव्य, 8वां काव्य, 16वां काव्य, 24वां काव्य, 32वां काव्य, 40वां काव्य और अंतिम 48वां काव्य - सबका आपस में गहरा संबंध है। प्रथम काव्य में ‘स्तुति का संकल्प’ है। आठवें काव्य में ‘आकिंचन’ का बोध कराया गया है। 16वें काव्य में आत्मा को परम शुद्ध कह दिया है कि आत्मा ‘निर्धूम दीपक’ के समान है। 24वें काव्य में ‘अनेकांत के जय घोष’ की घोषणा की है तथा अनेकांत की लोकप्रियता का वर्णन किया गया है। 40वें काव्य में बताया गया है कि अनेकांत सिद्धांत के अनुगामी के समक्ष ‘प्रलयकाल की अग्नि’ भी शांत हो जाती है तथा अंतिम 48वें काव्य में स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘जो परमात्मा की भक्ति की माला पहनेगा, तो निश्चित ही वह परमात्मा ...

जिंदगी मजहब के लिए है मज़ाक के लिए नहीं

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जिंदगी मजहब के लिए है मज़ाक के लिए नहीं (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) मज़ाक में जीवन गुजारना आसान है। मज़ाक-मज़ाक में ही जीवन की सारी उम्र समाप्त हो जाती है लेकिन मजहबी जिंदगी जीना बहुत मुश्किल है। दुनिया में लोग आते तो हैं जीने के लिए, लेकिन जीते हैं मरी हुई जिंदगी के समान, जिसमें न रौनक है, न खुशियाँ हैं, न कोई उल्लास नज़र आता है। सब लोग पशुओं की तरह भार जैसी जिंदगी जीते हैं। वे मजहबी जिंदगी नहीं जीते। मजहबी जिंदगी में हमेशा उत्सव है, ख़ुशी है, प्रसन्नता है, जागृति है। मजहबी जीवन फूलों जैसा खिला हुआ जीवन है और सूर्य के समान प्रकाशमान है। जब जीवन में खुशियाँ नहीं होती, तो वह जिंदगी केवल एक मज़ाक बनकर रह जाती है। जिंदगी के साथ मज़ाक करना सरल है क्योंकि मज़ाक करना मूर्खता और अज्ञानता का ही प्रतीक है। संसार अज्ञानियों से भरा हुआ है। केवल एक ज्ञान है जो किसी अवतार से ही अवतरित होता है। यदि जमीन पर तीर्थंकरों के अवतार न हुए होते तो ज्ञान का प्रादुर्भाव कभी नहीं हो सकता था। जिंदगी मज़ाक में जीने के लिए नहीं, मजहब की देहरी पर महकने के लिए है। जिंदगी हमारे लिए एक अमूल्य तोहफा ...

त्याग और दान

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त्याग और दान (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) अपनी सम्पत्ति या वस्तु के एक अंश को देना दान कहलाता है और जो अपना नहीं है, उसे छोड़ देना त्याग कहलाता है। दान देने से पुण्यफल की प्राप्ति होती है और त्याग करने से सर्वश्रेष्ठ की प्राप्ति होती है। दोनों के प्रतिफल में बहुत अन्तर है। त्यागने से उसके विपरीत वस्तु मिलती है और दान देने से वही वस्तु मिलती है। संसार में हम वस्तु को त्याग के रूप में छोड़ें, तब भी प्रतिफल में कुछ न कुछ तो मिलता ही है और यदि हम दूसरों को दान दें, तब भी उसका प्रतिफल मिलता है और कुछ भी न छोड़ें, न किसी को कुछ दें, केवल पकड़ने में ही लगे रहें, केवल दूसरों से लेते ही रहें, तब भी प्रतिफल मिलता है। तीनों के प्रतिफलों में त्यागने का फल वस्तु के विपरीत होता है। जैसे हम अज्ञान को त्यागें, तो ज्ञान मिलेगा। मोह को त्यागें, तो सुख मिलेगा। गलत धारणा को त्यागें, तो सही राह मिलती है। दुःख को त्यागें, तो सुख मिलता है। संसार को त्यागें, तो मोक्ष मिलता है। लेकिन दान देने पर विपरीत नहीं, अपितु वही वस्तु मिलती है, जो हम देते हैं। हम किसी की आँख फोड़ देते हैं तो हमारी आ...

उत्साह और उमंग

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उत्साह और उमंग (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) उत्साह और उमंग से मिलता है नया जीवन। नए जीवन की आस, नवजीवन की प्यास नई ज़िंदगी की सुवास। उत्साह और उमंग हर आदमी के जीवन में नई लहर लेकर आती है। यदि आज के काम में और अतीत के काम में कोई बदलाव नहीं आता, कोई नवीनता नहीं आती, तो हमारी जिंदगी में कुछ भी नया घटित नहीं होता। प्रभु का ध्यान जीवन में कुछ नया पाने के लिए और जीवन को नया बनाने के लिए ही किया जाता है। इससे हर नए दिन में एक नवीन आनन्द का संचार होता है। हर कार्य को नए ढंग से करने की उमंग जागृत होती है। कार्य तो वही होता है जो असफल लोग भी करते हैं लेकिन सही कार्य करने पर भी उन्हें सफलता क्यों नहीं मिलती? वास्तव में सही कार्य करने से सफलता नहीं मिलती, अपितु सही ढंग से कार्य करने पर सफलता मिलती है। उमंग जीवन की वह तरंग है, जिससे रोम-रोम धर्म कार्य करने के लिए रोमांचित हो उठता है, पुलकित हो जाता है और उस कार्य को करने का उत्साह उसमें प्रोत्साहन देकर और भी शक्ति भर देता है। उत्साह के बिना उमंग अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाती और उमंग के बिना उत्साह असहाय होकर दिशाहीन...

हुकूमत

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हुकूमत (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) हुकूमत का स्वाद उसी को नसीब होता है, जिसमें तप की अग्नि में जलने की हिम्मत होती है। हकीकत में हर आदमी सारी दुनिया पर हुकूमत करने की इच्छा रखता है लेकिन यह उसकी किस्मत है कि वह कितनी हुकूमत कर पाता है। कोई व्यक्ति होता है जो अपने घर पर ही नहीं, अपने पूरे खानदान पर हुकूमत करता है और कोई व्यक्ति अपने बच्चों पर भी हुकूमत नहीं चला पाता। यह गुण तो हमें अपने पुण्य के फल से प्राप्त होता है। पाप के फल को सत्य की अवश्यकता नहीं है, लेकिन पुण्य के फल को प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की गहराई से परिचित होना ही पड़ेगा, जो परम आवश्यक है। सत्य की गहराई हमें परमात्मा के चरणों में नसीब होती है। परमात्मा के सत्य रूपी सूर्य से ही हमें आत्मा में रोशनी उपलब्ध होती है। परमात्मा की परम ज्योति के प्रकाश से हम अपनी आत्मा का चिराग जला लें तो हमें भी हुकूमत नसीब हो सकती है। मानव इस धरती पर ऐसा उत्कृष्ट प्राणी है जो सब ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है। मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो परमात्मा के सर्वगुण भी प्राप्त कर सकता है। लेकिन जब मानव स्वयं ही अंधा हो जा...

इंसानियत

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इंसानियत (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) इंसानियत ही इंसान की मूल धरोहर है। यदि किसी इंसान में इंसानियत है, तभी वह इंसान कहलाने के योग्य है, अन्यथा उसे इंसान कहलाने का कोई हक नहीं है। हर इंसान के अंदर एक ख्वाहिश निरंतर पनप रही है और वह यह है कि सारी दुनिया मेरी मुट्ठी में हो जाए। मेरा अधिकार सारे विश्व पर हो जाए। सभी मेरी उंगलियों पर नृत्य करें। इस विचारधारा से अप्रत्यक्ष रूप में आदमी की कामना सब पर राज्य करने की दृष्टिगोचर होती है। आज आदमी को अपनी वास्तविक धरोहर का तो पता नहीं, लेकिन सारे संसार की धरोहर को वह अपनी मान बैठा है। जिस कारण वह अपनी धरोहर को भूल चुका है। आज इंसान की कीमत वस्तु से आंकी जाती है, इंसानियत से नहीं और परमात्मा इंसान की कीमत इंसानियत से आंकता है, वस्तु से नहीं। परमात्मा और इंसान के चिंतन में यह भेद होने के कारण आदमी चिंतित व परेशान नज़र आता है। वह सार तत्व को भूल चुका है। वह दूसरों पर अत्याचार करने में ही अपनी बहादुरी मानता है। मेरा विचार है कि इंसानियत के अभाव में आदमी का जीवन वैसा ही है, जैसे खुशबू के अभाव में फूल का, प्रकाश के अभाव में स...

धर्म

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धर्म (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) हम धर्म तो बहुत करते हैं, पर हमें धर्म का सही अर्थ भी मालूम होना चाहिए। वास्तव में धर्म हृदय के आन्तरिक रूपांतरण का नाम है, बाह्य आचरण के परिवर्तन का नहीं। धर्म आत्मा के जागरण की क्रिया है, केवल शरीर से की गई क्रिया नहीं है। जैसे लोहे और चुंबक में एकरूपता होने के उपरांत भी लोहे में चुंबकत्व के गुण प्रकट नहीं होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक क्रियाओं और बाह्य आचरण में एकरूपता हुए बिना केवल बाह्य आचरण से धर्म प्रकट नहीं होता। भीतर के चुंबकत्व के प्रकट होने का अर्थ है धार्मिक भावना को पुष्ट बनाना। आचरण की अभिव्यक्ति है धर्म। यह केवल वाणी का विलास नहीं, जीवन का सार है धर्म। धर्म कथ्य नहीं, कर्तव्य है। धर्म व्याख्या नहीं, व्याप्ति है। धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। धर्म प्रदर्शन की वस्तु नहीं, यह तो आत्मदर्शन का साधन है। धर्म परिधि का अभिनय नहीं, केन्द्र का श्रम है। धर्म अपनत्व का आचरण है। धर्म अहिंसा, सत्य, संयम और तप है। धर्महीन जीवन बकरी के गले हुए थन के समान अकार्यकारी है, जो केवल देखने के लिए हैं, पर उनसे दूध प्राप्त नहीं हो सकता...