त्याग और दान
त्याग और दान
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)
अपनी सम्पत्ति या वस्तु के एक अंश को देना दान कहलाता है और जो अपना नहीं है, उसे छोड़ देना त्याग कहलाता है। दान देने से पुण्यफल की प्राप्ति होती है और त्याग करने से सर्वश्रेष्ठ की प्राप्ति होती है। दोनों के प्रतिफल में बहुत अन्तर है। त्यागने से उसके विपरीत वस्तु मिलती है और दान देने से वही वस्तु मिलती है।
संसार में हम वस्तु को त्याग के रूप में छोड़ें, तब भी प्रतिफल में कुछ न कुछ तो मिलता ही है और यदि हम दूसरों को दान दें, तब भी उसका प्रतिफल मिलता है और कुछ भी न छोड़ें, न किसी को कुछ दें, केवल पकड़ने में ही लगे रहें, केवल दूसरों से लेते ही रहें, तब भी प्रतिफल मिलता है। तीनों के प्रतिफलों में त्यागने का फल वस्तु के विपरीत होता है। जैसे हम अज्ञान को त्यागें, तो ज्ञान मिलेगा। मोह को त्यागें, तो सुख मिलेगा। गलत धारणा को त्यागें, तो सही राह मिलती है। दुःख को त्यागें, तो सुख मिलता है। संसार को त्यागें, तो मोक्ष मिलता है। लेकिन दान देने पर विपरीत नहीं, अपितु वही वस्तु मिलती है, जो हम देते हैं। हम किसी की आँख फोड़ देते हैं तो हमारी आँख फूट जाती है। हम किसी को टेंशन देते हैं तो हमें टेंशन मिलती है। किसी को बुराई देते हैं तो हमें बुराई मिलती है। किसी को शांति और स्नेह देते हैं तो हमें भी शांति और स्नेह मिलेगा। अतः इसमें देने पर विपरीत नहीं बल्कि वही मिलता है।
परन्तु जो न देता है, न त्यागता है, केवल संचय ही करता रहता है, वह कंजूस है। ऐसे लोगों को प्रतिफल में स्वयं भीख मांगनी पड़ती है और भीख माँगने से अधिक निंदनीय कार्य कोई नहीं है।
त्याग करना ‘सोना’ है और दान देना ‘चांदी’ के समान है। त्यागने से वस्तु को मिट्टी या जीर्ण तृण के समान छोड़ा जा रहा है। त्यागने में अज्ञान के अन्धकार को छोड़कर ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त किया जा रहा है। त्यागने में पराई वस्तु छोड़ी जा रही है, जो तीन काल में भी अपनी नहीं थी और बदले में अपनी वस्तु हमें मिल रही है, तो तीन काल तक हमारे साथ रहने वाली है। इसलिए सोने के बदले सोना न मिले, वह अनन्त सुख है और चांदी के बदले चांदी मिले, वह दुःख के बदले में दुःख मिलने के समान है। हर वस्तु में अपनेपन और पराएपन का गुण छिपा हुआ है। हर नगर में सत्य और असत्य एक साथ मिलकर रह रहे हैं। यह हमारे परिणामों से तय होता है कि हम सत्य को पकड़ना चाहते हैं या असत्य को। हर वस्तु में वस्तु का वास्तविक सार छिपा हुआ है। यदि हम वस्तु का त्याग करें, तो वस्तु का सार हमें स्वतः ही मिल जाता है। यदि हम शारीरिक वेदना को त्यागें तो आत्मिक और मानसिक सुख मिलना स्वाभाविक ही है।
वस्तु का रहस्य समझ आने पर ही वस्तु का त्याग होता है। ज्ञान की अनुभूति होने पर अज्ञान का त्याग होता है। सुख की अनुभूति होने पर दुःख का त्याग होता है। ये सभी वस्तुएं हमसे भिन्न हैं। अपनी वस्तु का कभी त्याग नहीं किया जाता। यदि अपनी वस्तु का त्याग होता तो अपना अस्तित्व ही खो जाता, क्योंकि अपनी तो केवल आत्मा है, जिसे हम परमात्मा के समान बना सकते हैं। अपनी आत्मा और उसका अस्तित्व दूध और पानी की तरह एकमेक दिखाई देता है।
ज्ञान हमारी सम्पत्ति है, इसका त्याग नहीं होता। यह तो देने से उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। किसी को शांति के दो शब्द सुनाएंगे, तो हमें भी शांति और संतुष्टि प्राप्त होती है। इसी प्रकार भोगों का त्याग करने पर हमें भोगभूमि की उपलब्धि से सभी भोगसामग्री प्राप्त हो जाती है। अतः त्याग ही सर्वश्रेष्ठ है। स्वयं छोड़ना उत्कृष्ट है लेकिन छूट जाना निकृष्ट है। त्याग ही जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाता है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
विनम्र निवेदन
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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