धर्म

धर्म

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

हम धर्म तो बहुत करते हैं, पर हमें धर्म का सही अर्थ भी मालूम होना चाहिए। वास्तव में धर्म हृदय के आन्तरिक रूपांतरण का नाम है, बाह्य आचरण के परिवर्तन का नहीं। धर्म आत्मा के जागरण की क्रिया है, केवल शरीर से की गई क्रिया नहीं है। जैसे लोहे और चुंबक में एकरूपता होने के उपरांत भी लोहे में चुंबकत्व के गुण प्रकट नहीं होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक क्रियाओं और बाह्य आचरण में एकरूपता हुए बिना केवल बाह्य आचरण से धर्म प्रकट नहीं होता।

भीतर के चुंबकत्व के प्रकट होने का अर्थ है धार्मिक भावना को पुष्ट बनाना। आचरण की अभिव्यक्ति है धर्म। यह केवल वाणी का विलास नहीं, जीवन का सार है धर्म। धर्म कथ्य नहीं, कर्तव्य है। धर्म व्याख्या नहीं, व्याप्ति है। धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। धर्म प्रदर्शन की वस्तु नहीं, यह तो आत्मदर्शन का साधन है। धर्म परिधि का अभिनय नहीं, केन्द्र का श्रम है। धर्म अपनत्व का आचरण है। धर्म अहिंसा, सत्य, संयम और तप है। धर्महीन जीवन बकरी के गले हुए थन के समान अकार्यकारी है, जो केवल देखने के लिए हैं, पर उनसे दूध प्राप्त नहीं हो सकता।

शास्त्रों के अनुसार वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। स्व भाव अर्थात् अपना भाव। अग्नि का स्वभाव उष्णता एवं प्रकाश देना है। जब तक वह अपने स्वभाव में है, तब तक उसे कोई स्पर्श भी नहीं कर पाता। परंतु जैसे ही वह अपने स्वभाव से च्युत हो जाती है और लाल दहकता हुआ कोयला ठंडा होकर राख में बदल जाता है, त्यों ही वह पैरों तले रौंद दी जाती है। उसी प्रकार जब मनुष्य अपने धर्म को छोड़ कर कर्मरूप परिणत हो जाता है, तब कर्म भी उसे पैरों तले रौंद डालते हैं। धर्म के अभाव में मनुष्य पशु के समान हो जाता है। आत्मा में धर्म प्रकट होने के उपरांत व्यक्ति अपनी आत्मा में प्रवेश करने लगता है और उसके जीवन में सम्यक् दर्शन की भूमिका बन जाती है।

जिसकी आत्मा में धर्म प्रगट होता है, उसके व्यवहार में पवित्रता, विचारों में परिपक्वता, स्वभाव में विनम्रता, हृदय में उदारता जैसे गुणों का आगमन होने लगता है। जिस प्रकार दर्पण के प्रतिबिंब को पकड़ने से वह पकड़ में नहीं आता एवं यदि कोई स्वयं को पकड़ ले, तो वह भी पकड़ में आ जाता है, उसी प्रकार ग्रंथों को पकड़ लेने से धर्म पकड़ में नहीं आता, लेकिन धार्मिक आचरण को पकड़ने से धर्म अपने आप पकड़ में आ जाता है। अतः आप धर्म को पकड़ें, अपने स्वभाव को पकड़ें और आत्मोत्थान करें।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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