जीवन में गति है पर दिशा नहीं

जीवन में गति है पर दिशा नहीं

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

हम जीवन में सुबह से शाम तक दौड़ रहे हैं, लेकिन जाना कहाँ है, यह हमें मालूम नहीं है। हमारी यह दौड़ हमें कहीं नहीं पहुँचा पाती। जब तक हम अपनी दौड़ की दिशा को नहीं जानेंगे, तब तक हमारी दशा में भी परिवर्तन संभव नहीं है।

दशा बदलनी है तो दिशा भी बदलनी होगी। हमें अपने जीवन को एक सही दिशा देनी होगी। जीवन का लक्ष्य निर्धारण करना होगा। स्वयं के बारे में सोचना होगा कि आखिर हम सब यह क्यों कर रहे हैं? हम किसी को दगा देना चाहते हैं या उसे सगा बनाना चाहते हैं। किसी को ऊपर उठाना चाहते हैं या नीचे गिराना चाहते हैं। किसी की निंदा करना चाहते हैं या उपासना करना चाहते हैं। किसी को आराध्य बनाना चाहते हैं या सेवक बनाना चाहते हैं। किसी के चरणों में अपना मस्तक झुकाना चाहते हैं या अपने चरणों में उसका मस्तक झुकाना चाहते हैं।

हमारे जीवन का हेतु क्या है? हम यह सब क्यों करना चाहते हैं? इसे करने से क्या लाभ होगा? लक्ष्यहीन मानव भटकता रहता है। जैसे हवाएं अनंत आकाश में भटकती रहती हैं, बहती रहती हैं, किसी भी सुगंधित या दुर्गंधयुक्त पदार्थ का स्पर्श करती रहती हैं, उसी प्रकार यह आत्मा भी बिना हेतु के 84 लाख योनियों में भटकती रहती है। जिस क्षण जीवन का लक्ष्य बन जाता है, उसी समय हमें दिशा मिल जाती है और हम उस दिशा में चलना प्रारंभ कर देते हैं तथा एक न एक दिन हम अपने साध्य को उपलब्ध हो जाते हैं।

‘हेतु’ जीवन की दिशा को निर्धारित करने वाला एक साधन है। बिना नींव के इमारत, बिना धड़कन के प्राण, बिना रोशनी की आँखें तथा बिना प्राणों का शरीर कायम नहीं रह सकता। इसी प्रकार बिना हेतु के या बिना लक्ष्य के और बिना अभिप्राय के जीवन का महल भी निर्मित नहीं हो सकता।

पहले हम हेतु का अर्थ समझ लें। हेतु शब्द द्वि-अर्थवाची है। एक हेतु का अर्थ है - कारण, प्रयोजन अभिप्राय और लक्ष्य तथा दूसरे का अर्थ है - स्वयं से पूछना कि हे आत्मन्! तू क्या है?

इस धारा को अपनाने वाले लोग बिरले ही होते हैं। आप इन दोनों में से किस धारा के साथ बहना चाहते हो? कौन सा अभिप्राय आपको आकर्षित करता है? हे आत्मन्! तू क्या है - इस हेतु का आलंबन लेने वाला ही उस अमृत पुंज को, उस अमर ज्योति के आलय को उपलब्ध कर पाता है।

हमें अपने जीवन में एक न एक हेतु तो अवश्य बनाना होगा। आपके सामने दो हेतु हैं। एक हेतु है व्यावहारिक और दूसरा हेतु है आध्यात्मिक अर्थात् यह सोच कि हे आत्मन्! तू क्या है? इसी हेतु को हमें स्वयं में उतारना है। संसार के हेतु को तो मैं बहुत बार अपना चुका हूँ, अब नवीन हेतु को अपनाना है। संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान करो। मिथ्या हेतु का त्याग करो और निज का रसपान करो।

हर शहर पराया है, बेगाना है गाँव यहाँ।

विश्राम करूँ मैं पल दो पल,

कहो कहाँ है छाँव यहाँ।।

यहाँ अपना कोई घर-द्वार नहीं है। पराया घर है, परायी बस्ती है। अपना कोई गाँव नहीं है। मैं किस वृक्ष के नीचे जाऊँ? कहीं विश्राम नहीं मिलता। जरा सी पलक झपकाते ही सामान चोरी हो जाता है। यहाँ किस पर विश्वास करूँ? यहां सभी बेगाने हैं, पराए हैं। अब तो स्वयं ही स्वयं से ही पूछो - हे आत्मन्! तू कौन है? कहां से आया है? तेरा स्वभाव क्या है? तुझे क्या करना है? तू क्या करता आ रहा है और आगे क्या करना है?

तू उसको जान, जो देहालय में छिपा बैठा है। विश्राम का केंद्र तो आत्मस्थल ही है। वहीं विश्राम मिल सकता है। यदि स्वयं में यह प्रश्न निरंतर उठता रहे कि हे आत्मन्! तू क्या है? इस श्रद्धा का, आस्था का दीपक आत्मा के किसी कोने में यदि जल जाए तो ‘हेतु’ का समाधान शीघ्र हो जाए।

हेतु का तेल, श्रद्धा की बाती, आचरण का स्पर्श बुझे दीपक को जला देता है।

ज्योति से ज्योति का स्पर्श होते ही बुझा हुआ दीपक भी जल जाता है।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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