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Showing posts from November, 2020

पूजा-भक्ति का महात्म्य अद्भुत है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज पूजा-भक्ति का महात्म्य अद्भुत है महानुभावों! पूजा-भक्ति का महात्म्य अद्भुत है। एक तिर्यंच पर्याय में जन्म लेने वाले मेंढक ने भी भक्ति के बल पर मरने के बाद स्वर्ग के अपार वैभव को क्षण भर में ही पा लिया। यह भक्ति-गंगा की लहर हृदय की गहराई से प्रवाहित होनी चाहिए। जब तक भक्ति-धारा बाहर की ओर प्रवाहित होती रहेगी तब तक भक्त और भगवान एक नहीं हो सकते। वे अलग अलग दिशा में बहते रहते हैं। भक्ति का वास्तविक स्वरूप समझ में आते ही अपनी मंज़िल तक पहुँचने का मार्ग भी आसानी से मिल जाएगा अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जाओगे। मुनि श्री कहते हैं कि स्तुति में तन्मयता आने पर ही भक्ति से अतिशय होते हैं। अतिशय भक्तों से होते हैं, भगवान से नहीं। भगवान के अतिशय तो उनके जीवनकाल में ही पूरे हो चुके हैं। अतः अब अतिशय होने का प्रमुख आधार हमारे मन की विशुद्धता ही है। यह अकाट्य सत्य है कि जब हमारा मन भगवान की भक्ति में तन्मय हो जाता है तभी अतिशय प्रकट होने लगते हैं।  मुनि श्री आगे कहते हैं कि जब निष्काम भक्ति से बाहरी बंधन, ताले, कड़ियाँ आदि भी टूट सकती हैं तो क्या भीतर...

ग़लतफहमी का मूल

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज ग़लतफहमी का मूल ग़लतफहमी के मूल में संदेह कारण बनता है। महानुभावों! ग़लतफहमी के मूल में संदेह ही कारण बनता है। व्यक्ति दूसरों के प्रति अहित की भावना रखने के कारण मन में दूषित विचारों को जन्म देता रहता है। कलुषित आशंकाएं उत्पन्न हो जाती हैं। उसकी सोच का आधार उसके प्रति पहले से बनी हुई धारणाएं होती हैं। एक गलती के गर्भ से ही दूसरी गलती का जन्म होता है। उसका सारा जीवन गलत मार्ग पर चलने लगता है। उसकी हर बात में संदेह करने लगता है जो बढ़ते-बढ़ते वैमनस्य में बदल जाता है। सच्ची दोस्ती, दुश्मनी में परिवर्तित हो जाती है। कटु वचन, हिंसा, मारकाट तक बात पहुँच जाती है। मानसिक तनाव बढ़ जाता है।     ग़लतफहमी का कुफल मुकदमेबाजी के रूप में दिखाई देने लगता है और पैसे की बर्बादी अलग से। मुनि श्री कहते हैं कि शंका के वृक्ष पर निन्दा और चुगली के विषफल उगने लगते हैं। चुगली करना भी एक प्रकार से मानसिक रुग्णता की निशानी है, जिसमें चुगलखोर गुप्त रूप से दूसरों की निन्दा करने लगता है। वह अपने आप को श्रेष्ठ घोषित करने के लिए दूसरों की तथाकथित राई के बराबर गलती ...

संस्कृति की सत्ता सदाचार और नैतिकता पर निर्भर है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज संस्कृति की सत्ता सदाचार और नैतिकता पर निर्भर है महानुभावों! संस्कृति की सत्ता सदाचार और नैतिकता पर निर्भर है। जहाँ नैतिकता नहीं, वहाँ धर्म नहीं। सच्चा धर्म है कर्त्तव्य-पालन में। सम्यक् आचार विचार के बिना ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। जहाँ कथनी और करनी में अन्तर होता है, वहाँ ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान होता है। वह धर्म नहीं, पाखण्ड कहलाता है। मुनि श्री कहते हैं कि शुद्ध भौतिकतावादी मानसिकता के साथ-साथ स्वार्थ की गति भी दिनोंदिन बढ़ती चली जा रही है, जिसका परिणाम हम सब देख ही रहे हैं। आज बेटों द्वारा बूढ़े माता-पिता की क्या दुर्दशा हो रही है ? वे बूढ़े माता-पिता भी विवश हैं घर में रहने को और सहने को। विपुल धन और सुख-सुविधा के साधन इकट्ठे कर के और अधिकाधिक परिग्रह जोड़ कर स्वयं को एकाकी जीवन जीने की प्रेरणा और संस्कार देना भी उन की नादानी है। अपवाद तो हो सकते हैं पर आज भी ऐसे बहुत से धर्मोपदेशक, शास्त्रों के विवेचनकर्त्ता और पंडित हैं जो नाती, पोतों और बच्चों के साथ बैठ कर घरों में चित्रहार का आनंद लेते हैं, टी.वी. देखते हैं वह भी बिना किसी शर्म लिहाज़ के। अब ...

साधु का जीवन ही शास्त्र है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज साधु का जीवन ही शास्त्र है महानुभावों! साधु एक प्रदीप है। उसकी देह एक Power House के समान है जिसमें तेजस् शक्ति विद्यमान है। उसका मुख का तेज उसका आभामण्डल है अर्थात् उसकी विद्युतीय अतुल शक्ति का परिचायक है। जैसे ही कोई जिज्ञासु उस आभामण्डल में प्रवेश करता है वैसे ही उसके अशुद्ध परमाणु झड़ जाते हैं। जैसा कि आप जानते हैं, भगवान महावीर का प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गणाधिपति था। पाँच सौ शिष्यों का गुरु था किंतु अनुभवहीन होने के कारण दम्भी था। जैसे ही वह सौधर्म इन्द्र के साथ भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट हुआ, उसे भगवान महावीर के मुखमण्डल के दर्शन हुए, वैसे ही उनके तेजस् शुभ विद्युतीय प्रभाव से उसके अहंकार के परमाणु गल गए और तत्क्षण उसके आत्मचक्षु खुल गए। रंचमात्र भी प्रयास नहीं करना पड़ा। तात्पर्य यह है कि आत्मचक्षु खोलने के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा और गुरुचरण का सान्निध्य ही पर्याप्त है। आचार्य श्री कहते हैं कि वही व्यक्ति ध्यान-साधना का पात्र है जिसका मन संसार से विरक्त हो। उसका मन इन्द्रियों को वश में करने वाला हो, जिसका चित्त संवर से युक्त हो। संवर...

महामंत्रः मुक्ति और सिद्धि का साधन

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज महामंत्रः मुक्ति और सिद्धि का साधन महानुभावों! णमोकार मंत्र की साधना से ऐसी शक्ति मिलती है जिससे आप किसी भी संकट से मुक्त हो सकते हैं। यह महामंत्र मुक्ति और सिद्धि का साधन है। इसके द्वारा ही आत्म-कल्याण संभव है। वे लोग भ्रम में हैं जो इसे लौकिक कामनाओं की पूर्ति का साधन मानते हैं। णमोकार मंत्र लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उपयोगी नहीं है। जो लोग इसका जाप कामना पूर्ति के लिए करते हैं वे अतृप्त होकर ही लौटते हैं। वे निराशा के गहरे गर्त में गिर जाते हैं, निराशा का अंधकार उन्हें अपने आगोश में ले लेता है और वे अपनी ऐसी अवस्था के लिए दूसरों पर दोषारोपण करने लगते हैं।  यह मंत्र सभी कामनाओं व इच्छाओं को शांत कर देता है। पुण्य कर्म के उदय से संयोगवश लौकिक कामनाओं की पूर्ति होने पर आपको ऐसी भ्रांति हो जाती है कि यह लाभ हमें णमोकार मंत्र के जाप से ही हुआ है। हाँ, इस मंत्र की साधना व उपासना से आपको ऐसी शक्ति अवश्य मिल सकती है जिससे आप संकट-मुक्त हो जाते हैं। यह मंत्र उस अदृश्य शक्ति को प्रकट कर देता है। आगे मुनि श्री कहते हैं कि यदि लौकिक कामनाओं की पूर्ति के ...

पाप से बचने का उपाय

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज पाप से बचने का उपाय पाप से बचने के लिए, मरण को रखो याद। दुरात्मा महात्मा बना, छोड़ सभी उत्पात।। महानुभावों! एक दुरात्मा था। प्रतिदिन मुनि के पास जाता और पूछता - हे मुनिवर! मेरा दुष्टता का स्वभाव कैसे छूटेगा ? मुझे कोई उपाय बताओ। वे उसे हर बार टाल देते थे। एक दिन जब वह बहुत आग्रह करने लगा तो मुनि ने उसकी हस्तरेखा देखी और विश्वास दिलाया कि अब तुम्हारा दुष्टता का स्वभाव छूटने का समय आ गया है क्योंकि अब तुम्हारी आयु केवल एक महीना ही शेष रह गई है।  यह सुन कर दुरात्मा चिंता में डूब गया। अगले एक महीने तक उसे कोई दुष्ट कार्य करने का ध्यान भी नहीं आया। बस! हर समय दुःख, भय, दुष्कर्मों के पश्चाताप में और भजन-पूजा में ही लगा रहा। भविष्य में होने वाली दुर्गति की चिन्ता ही उसके मस्तिष्क में छाई रही। जब एक महीने में एक दिन शेष रह गया तब मुनि ने उसे बुलाया और पूछा - कहो! इस एक महीने में कितनी बार दुष्ट काम किए या उनको करने का भाव मन में आया ? कितने पाप किए ?   उत्तर मिला - मुनिराज! एक बार भी नहीं। चित्त पर तो हर समय मृत्यु का भय ही छाया रहा। पाप करने की इच्छा...

परमात्मा के दर्शन

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज परमात्मा के दर्शन महानुभावों! क्या आपने कभी परमात्मा के दर्शन किए हैं ?   चलो! आज आपको इब्राहीम आदम बलख के बारे में बताते हैं। वह एक सादगी प्रिय धर्मनिष्ठ बादशाह थे जो प्रतिपल, प्रतिक्षण परमात्मा के अन्वेषण में लगे रहते थे। उनके महल के द्वार प्रजा के लिए हर समय खुले रहते थे। उनके पास कोई भी व्यक्ति बिना किसी संकोच के पहुँच सकता था। किसी के लिए मनाही नहीं थी। उनका महल एक पहाड़ी पर बना हुआ था। एक बार जब वे रात्रि में सो रहे थे तो उन्होंने महल में किसी के पैरों की आहट सुनी। वे चौंक कर उठ बैठे। उन्होंने अंधेरे में ही देखा कि एक मानव आकृति उनके पास आ रही है।  इब्राहीम ने पूछा - ‘आप कौन हैं और इस प्रकार आपका आगमन क्यों हुआ ? ’  मानव आकृति ने कहा - ‘मैं आपका ही मित्र हूँ। मेरा ऊँट खो गया है। उसका अन्वेषण करने आया हूँ।’  इब्राहीम ने कहा - ‘मित्र! इतनी ऊँची पहाड़ी पर, इतने ऊँचे महल में आपका ऊँट कैसे आएगा ? महल में ऊँट खोजना क्या पागलपन नहीं है ? ’ मानव आकृति ने मुस्कुराते हुए कहा - ‘इब्राहीम! तुम्हें मेरा पागलपन तो ज्ञात हो गया! जैसे ऊँचे महल ...

धर्म और विज्ञान

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज धर्म और विज्ञान धर्म और विज्ञान दोनों की मानव जाति को आवश्यकता है। महानुभावों! मानव जाति को धर्म और विज्ञान दोनों की अपने अपने कार्य के अनुसार आवश्यकता है। दोनों एक दूसरे को अधिक उपयोगी बनने में भारी योगदान दे सकते हैं। शरीर भौतिक पर्याय है इसलिए इसके  लिए सुविधा के साधन भौतिक विज्ञान की सहायता से जुटाए जा सकते हैं। आत्मा चेतन है। उसकी उन्नति के लिए धर्म के आलम्बन की आवश्यकता है। मुनि श्री आगे कहते हैं कि विज्ञान चाहता है, धर्म को प्रामाणिकता और उपयोगिता की कसौटी पर कसा जाना और खरा सिद्ध होना आवश्यक है। तभी उसे  सच्चे अर्थों में मान्यता मिलेगी। इसी प्रकार धर्म चाहता है कि विज्ञान को अपनी सीमा समझनी चाहिए। सभी तथ्य विज्ञान की कसौटी पर नहीं कसे जा सकते अतः जो बातें उसकी पहुँच से बाहर हैं, उनमें उसे दखल नहीं देना चाहिए। दोनों की माँग उचित दिखाई देती है। धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए सभी अवसर विद्यमान हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उसके पास इतने तर्क और प्रमाण हैं कि उसकी गरिमा की स्थिरता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। आज धर्म में जो विकृतियाँ...

धर्म किसी भी स्थान पर रह कर किया जा सकता है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज धर्म किसी भी स्थान पर रह कर किया जा सकता है महानुभावों! धर्म किसी भी स्थान पर रह कर किया जा सकता है। धर्म ही संसार रूपी जेल से मुक्ति का मार्ग है। धर्म घर, मंदिर, चौराहे पर या खुले स्थान पर या फिर जेल में भी किया जा सकता है। धर्म का अर्थ है - किसी को दुःख न देना, किसी के प्रति घृणा या शत्रुता का भाव न रखना। मुनि श्री कहते हैं कि दुःख देने से दुःख मिलता है, घृणा करने से घृणा मिलती है, शत्रुता करने से शत्रुता मिलती है। मानव तन मिला है तो हे मानव! सभी पापों को त्याग कर अपने हृदय में सुप्त पड़े हुए परमात्मा के अंश (बीज) को अंकुरित करने का प्रयास करो जिससे परमात्मा के निकट पहुँचा जा सके। परमात्मा से साक्षात्कार हो सके, क्योंकि यह मानव जन्म बहुत दुर्लभता से प्राप्त होता है। तुम मानव अर्थात् मनु की संतान होकर उस जैसे कार्य नहीं कर पा रहे हो तो अपने आप को धोखा दे रहे हो। सुख और शांति खोजने के लिए तुम बाहर भटकते हो पर वह तो तुम्हारे अंदर ही है। आज भाई जीवित है पर उसके साथ होने वाला भाईचारा मर गया है। निःस्वार्थ प्रेम समाप्त हो गया है। यही कारण है कि तुम संसारी बन...

जोड़ने से तोड़ना सरल है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जोड़ने से तोड़ना सरल है महानुभावों! क्या आप पेड़ से टूटे हुए पत्ते को फिर से शाखा पर जोड़ सकते हैं ? क्या आप टूटे हुए काँच को फिर से जोड़ सकते हैं ? यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि तोड़ना आसान है और जोड़ना कठिन। अंगुलिमाल नाम का एक बहुत खूंखार डाकू था। वह लोगों को मारकर उनकी अंगुलियां काट लेता था और उनकी माला बना कर पहनता था। उसका नाम सुनते ही लोगों के प्राण सूख जाते थे। शाम होते ही नगर के लोग अपने-अपने घरों में दुबक कर बैठ जाते थे। एक बार उस नगर में गौतम बुद्ध का आगमन हुआ। लोगों ने गौतम बुद्ध से कहा कि भगवन्! यहाँ से चले जाएं। इस नगर में अंगुलिमाल का आतंक छाया हुआ है। बुद्ध के पास पवित्र आत्मा की शक्ति थी। उन्होंने वहाँ से जाने के लिए मना कर दिया। डाकू अंगुलिमाल ने अपने आतंक से गौतम बुद्ध को आतंकित करने के लिए उनको भी मारने की योजना बनाई और चला उन्हें धमकाने कि आज मैं तुम्हें जान से मार डालूँगा। लेकिन यह क्या ? अंगुलिमाल जैसे ही बुद्ध के पास पहुँचा, उनकी सौम्य मुद्रा को देखकर उसके मन के सभी पाप पलायन कर गए। बुद्ध उसके मन की बात समझ गए। उन्होंने जान लिया क...

सत्य

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज सत्य सत्य बहुत मीठा होता है, पर मन की कटुता से वह कड़वा लगता है। अवनितल गतानां कृत्रिमकृत्रिमाणां, वनभवन गतानां दिप्यपैमाणिकानाम्। इह मनुजकृतानां देवराजायिंतानां, जिनवरनिलयाणां भावतोऽहं स्मरामि दुनिया में सत्य से बढ़कर अन्य कोई मुक्तिदाता नहीं है। सत्य ‘साधना’ से जागृत होता है और ‘साधनों’ से मृत होता है। सत्य की सिर्फ चर्चा ही नहीं होनी चाहिए अपितु जीवन में उसका पालन भी होना चाहिए। झूठ सबसे पहने मन में पैदा होता है फिर मुख से प्रगट होता है। केवल मौन धारण कर लेने से कोई सत्यवादी नहीं हो जाता। सत्यवादी का अर्थ है - मुख से भी सच्चा और मन से भी सच्चा, क्योंकि आदमी चाहे मुख से झूठ बोले या न बोले पर मन में तो सदैव झूठ में ही जीता है, झूठ की योजना बनाता रहता है। सत्य कभी कड़वा नहीं होता। सत्य तो सदैव मीठा ही होता है और यदि वह कड़वा है तो वह सत्य हो ही नहीं सकता।  यह तो तुम्हारे मन में ही कड़वाहट भरी हुई होती है जो सत्य को मीठा लगने ही नहीं देती। जैसे बुखार के मरीज़ को मीठा दूध भी पिलाओ तो उसे कड़वा ही लगेगा। दूध तो कड़वा नहीं है न! बुखार के कारण जिह्ना का स...