संस्कृति की सत्ता सदाचार और नैतिकता पर निर्भर है

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

संस्कृति की सत्ता सदाचार और नैतिकता पर निर्भर है

महानुभावों! संस्कृति की सत्ता सदाचार और नैतिकता पर निर्भर है। जहाँ नैतिकता नहीं, वहाँ धर्म नहीं। सच्चा धर्म है कर्त्तव्य-पालन में। सम्यक् आचार विचार के बिना ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। जहाँ कथनी और करनी में अन्तर होता है, वहाँ ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान होता है। वह धर्म नहीं, पाखण्ड कहलाता है।

मुनि श्री कहते हैं कि शुद्ध भौतिकतावादी मानसिकता के साथ-साथ स्वार्थ की गति भी दिनोंदिन बढ़ती चली जा रही है, जिसका परिणाम हम सब देख ही रहे हैं। आज बेटों द्वारा बूढ़े माता-पिता की क्या दुर्दशा हो रही है? वे बूढ़े माता-पिता भी विवश हैं घर में रहने को और सहने को। विपुल धन और सुख-सुविधा के साधन इकट्ठे कर के और अधिकाधिक परिग्रह जोड़ कर स्वयं को एकाकी जीवन जीने की प्रेरणा और संस्कार देना भी उन की नादानी है।

अपवाद तो हो सकते हैं पर आज भी ऐसे बहुत से धर्मोपदेशक, शास्त्रों के विवेचनकर्त्ता और पंडित हैं जो नाती, पोतों और बच्चों के साथ बैठ कर घरों में चित्रहार का आनंद लेते हैं, टी.वी. देखते हैं वह भी बिना किसी शर्म लिहाज़ के। अब आप स्वयं ही बताइए कि उनके इस कृत्य का उनके परिवार या अन्य श्रावकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? लोग कैसे उनके जीवन पथ को अपनाएंगे? 

मुनि श्री कहते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति ने मानव जीवन में सर्व सुख के साधन उपलब्ध करा दिए हैं और प्रत्येक व्यक्ति ने उन्हें अपने प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त भी कर लिया है पर दुःख की बात तो यह है कि व्यक्ति उनका उपयोग सभ्य बनने के लिए नहीं बल्कि शैतान बनने के लिए कर रहा है क्योंकि उसकी इच्छाओं व आकांक्षाओं ने इन भौतिक साधनों को प्राप्त करना ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है। कोठी, कार, बंगला, बैंक-बैलेंस आदि के लिए ही उसने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया है। इसके लिए चाहे उसे अधर्म, अन्याय और पापों  के पथ पर ही क्यों न जाना पड़े? यही कारण है कि उसे सुख के बदले दुःख ही प्राप्त हो रहे हैं। शांति के स्थान पर अशांति ही मिल रही है। बंधुओं! यदि आप शांति चाहते हैं तो भौतिकतावादी मानसिकता का त्याग करो और अज्ञान रूपी अंधकार से प्रकाश देने वाले ज्ञान मार्ग की ओर बढ़े चलो।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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