धर्म और विज्ञान

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

धर्म और विज्ञान

धर्म और विज्ञान दोनों की मानव जाति को आवश्यकता है।

महानुभावों! मानव जाति को धर्म और विज्ञान दोनों की अपने अपने कार्य के अनुसार आवश्यकता है। दोनों एक दूसरे को अधिक उपयोगी बनने में भारी योगदान दे सकते हैं। शरीर भौतिक पर्याय है इसलिए इसके  लिए सुविधा के साधन भौतिक विज्ञान की सहायता से जुटाए जा सकते हैं। आत्मा चेतन है। उसकी उन्नति के लिए धर्म के आलम्बन की आवश्यकता है। मुनि श्री आगे कहते हैं कि विज्ञान चाहता है, धर्म को प्रामाणिकता और उपयोगिता की कसौटी पर कसा जाना और खरा सिद्ध होना आवश्यक है। तभी उसे  सच्चे अर्थों में मान्यता मिलेगी। इसी प्रकार धर्म चाहता है कि विज्ञान को अपनी सीमा समझनी चाहिए। सभी तथ्य विज्ञान की कसौटी पर नहीं कसे जा सकते अतः जो बातें उसकी पहुँच से बाहर हैं, उनमें उसे दखल नहीं देना चाहिए। दोनों की माँग उचित दिखाई देती है।

धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए सभी अवसर विद्यमान हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उसके पास इतने तर्क और प्रमाण हैं कि उसकी गरिमा की स्थिरता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। आज धर्म में जो विकृतियाँ आ गई हैं वे साम्प्रदायिक कट्टरतावाद के कारण हैं और धर्म की सही समझ के अभाव के कारण हैं। इसलिए जो धर्म की मूल नीति से सर्वथा भिन्न भ्रांतियां और विकृतियाँ इस क्षेत्र में प्रविष्ट हो गई हैं, उन्हें या तो सुधारा जाना चाहिए या पूर्णतया हटा देना चाहिए। यह अति आवश्यक है। 

‘वाणी वाक्ये प्रमाणम्’ की नीति अपनाना और जो चल रहा है उसे पत्थर की लकीर मानकर उसी पर अड़े रहना सर्वथा अनुचित है।

बंधुओं! ‘धर्म’ शब्द शाश्वत सत्य है, सनातन है पर उसमें जिन प्रथाओं और परम्पराओं ने अवांछित रूप से अपना स्थान बना लिया है, उसमें सुधार व परिवर्तन की आवश्यकता है। वास्तविक धर्म एक नीति है, सदाचरण है। उस पर न तो अंगुली उठाने की आवश्यकता है और न ही संदेह करने की। धर्म किसी के बिगाड़ने से बिगड़ता नहीं है। एक चोर भी अपने यहाँ ईमानदार नौकर ही रखना चाहता है। एक निष्ठुर भी अपने साथ उदार व्यवहार की अपेक्षा करता है। व्यभिचारी भी अपनी पुत्री के विवाह के लिए सदाचारी वर चाहता है। झूठा आदमी भी सच्चाई का समर्थन करता है। इससे स्पष्ट है कि शास्त्रों ने जिस अर्थ में धर्म का प्रतिपादन किया है, उसे कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। जिसका धर्म कह कर उपहास उड़ाया जाता है या उसे अनुपयोगी सिद्ध कर दिया जाता है तो वह विकृत सम्प्रदायवाद ही है, सच्चा धर्म नहीं है।

मुनि श्री कहते हैं कि विज्ञान का अर्थ है - विशिष्ट ज्ञान, विवेक। विज्ञान का लक्ष्य है - सत्य का शोध। जो वस्तु काम में आए, उसे विज्ञान स्वीकृति देता है और जो वस्तु काम में न आए, उसे विज्ञान अस्वीकृत कर देता है। संसार में दो शक्तियाँ हैं जो मानव जाति के भाग्य का निर्माण करती हैं और उसका निर्धारण करती हैं। एक है धर्म और दूसरी है शासन। मनुष्य के भावनात्मक क्षेत्र पर धर्म का नियंत्रण होता है। धर्म के आधार पर ही उसका चिंतन परिष्कृत होता है। इसलिए इस क्षेत्र में आई हुई विकृतियाँ असह्य माननी चाहिएं। उनका अविलंब परिष्कार करना चाहिए।

राजसत्ता या शासन का नियंत्रण मानव की भौतिक वस्तुओं और परिस्थितियों पर होता है। उन वस्तुओं के उचित उत्पादन, उपयोग, वितरण एवं मानवीय मर्यादाओं के पालन का उत्तरदायित्व शासन पर होता है। यदि वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है तो समाज में विभीषिकाएं और विकृतियाँ फैलने की आशंका बनी रहती हैं। अतः धर्म और विज्ञान दोनों की ही मानव जाति को अपने-अपने उत्तरदायित्व के अनुसार आवश्यकता है।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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