साधु का जीवन ही शास्त्र है
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
साधु का जीवन ही शास्त्र है
महानुभावों! साधु एक प्रदीप है। उसकी देह एक Power House के समान है जिसमें तेजस् शक्ति विद्यमान है। उसका मुख का तेज उसका आभामण्डल है अर्थात् उसकी विद्युतीय अतुल शक्ति का परिचायक है। जैसे ही कोई जिज्ञासु उस आभामण्डल में प्रवेश करता है वैसे ही उसके अशुद्ध परमाणु झड़ जाते हैं।
जैसा कि आप जानते हैं, भगवान महावीर का प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गणाधिपति था। पाँच सौ शिष्यों का गुरु था किंतु अनुभवहीन होने के कारण दम्भी था। जैसे ही वह सौधर्म इन्द्र के साथ भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट हुआ, उसे भगवान महावीर के मुखमण्डल के दर्शन हुए, वैसे ही उनके तेजस् शुभ विद्युतीय प्रभाव से उसके अहंकार के परमाणु गल गए और तत्क्षण उसके आत्मचक्षु खुल गए। रंचमात्र भी प्रयास नहीं करना पड़ा।
तात्पर्य यह है कि आत्मचक्षु खोलने के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा और गुरुचरण का सान्निध्य ही पर्याप्त है। आचार्य श्री कहते हैं कि वही व्यक्ति ध्यान-साधना का पात्र है जिसका मन संसार से विरक्त हो। उसका मन इन्द्रियों को वश में करने वाला हो, जिसका चित्त संवर से युक्त हो। संवर का अर्थ है - जो दूषित कर्म बन्ध न होने देने के प्रति हर पल सावधान रहता हो, जो कष्टों से घबराता न हो, जो तत्त्व-अतत्त्व का विवेक रखता हो, जो भय रहित हो, आलस्य रहित हो, संयमित आहार-विहार करने वाला हो, व्रतों में दृढ़ हो, वही आत्म-विद्या का साधक हो सकता है।
जिसका खान-पान शुद्ध नहीं है, जो तामसिक, मादक पदार्थों का सेवन करता हो व मांसाहारी हो, वह शुभ ध्यान का साधक नहीं हो सकता। अधिक पेट भरा हो या बिल्कुल खाली पेट हो, तब भी साधना नहीं की जा सकती। शरीर की सामान्य अवस्था में ही साधना करना संभव है। साधु की जीवन-चर्या इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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