पूजा-भक्ति का महात्म्य अद्भुत है
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
पूजा-भक्ति का महात्म्य अद्भुत है
महानुभावों! पूजा-भक्ति का महात्म्य अद्भुत है। एक तिर्यंच पर्याय में जन्म लेने वाले मेंढक ने भी भक्ति के बल पर मरने के बाद स्वर्ग के अपार वैभव को क्षण भर में ही पा लिया। यह भक्ति-गंगा की लहर हृदय की गहराई से प्रवाहित होनी चाहिए। जब तक भक्ति-धारा बाहर की ओर प्रवाहित होती रहेगी तब तक भक्त और भगवान एक नहीं हो सकते। वे अलग अलग दिशा में बहते रहते हैं। भक्ति का वास्तविक स्वरूप समझ में आते ही अपनी मंज़िल तक पहुँचने का मार्ग भी आसानी से मिल जाएगा अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जाओगे।
मुनि श्री कहते हैं कि स्तुति में तन्मयता आने पर ही भक्ति से अतिशय होते हैं। अतिशय भक्तों से होते हैं, भगवान से नहीं। भगवान के अतिशय तो उनके जीवनकाल में ही पूरे हो चुके हैं। अतः अब अतिशय होने का प्रमुख आधार हमारे मन की विशुद्धता ही है। यह अकाट्य सत्य है कि जब हमारा मन भगवान की भक्ति में तन्मय हो जाता है तभी अतिशय प्रकट होने लगते हैं।
मुनि श्री आगे कहते हैं कि जब निष्काम भक्ति से बाहरी बंधन, ताले, कड़ियाँ आदि भी टूट सकती हैं तो क्या भीतरी कर्म बंधन की जंजीरें नहीं टूटेंगी? चाहे आचार्य समन्तभद्र हों या मानतुंगाचार्य, सभी के जीवन में सच्ची भक्ति का अतिशय स्वयं ही प्रकट हुआ। जब उनके संकट की विषम घड़ी में कोई सहारा नहीं था तब उन्होंने भगवान की पवित्र भक्ति के बल पर ही धर्म की प्रतिष्ठा कायम की। उन्होंने विद्वेषी राजा और प्रजा को अपनी वीतरागता से प्रभावित किया और धर्मानुरागी बनाया।
जब भी धर्म पर संकट आए हैं, उपसर्ग हुए हैं, तब भगवान की भक्ति के प्रभाव से ही देवों द्वारा अतिशय हुए, चमत्कार हुए, उपसर्ग टले और धर्म की जय-जयकार हुई।
भक्त को भगवान से याचना करने की आवश्यकता नहीं है। जिसकी भक्ति के प्रभाव से मुक्ति की सम्पदा और मोक्ष महल का साम्राज्य मिल सकता है तो उस भक्ति से संसार की तुच्छ सामग्री मांग कर भक्ति को दूषित क्यों करते हो? भगवान तो भगवान हैं, दाता नहीं; भक्त भक्त है, भिखारी नहीं। अतः मांगने का पाप मत करो बल्कि अपनी भक्ति और साधना से ध्यान की विशुद्धि बढ़ाओ।
उसका परिणाम यह होगा कि क्लेश घटेगा, वात्सल्य बढ़ेगा और आत्मा परमात्मा के मार्ग पर चलेगी। हम सब कितने सौभाग्यशाली हैं जो इस पंचम काल में भी दिगम्बर मुनियों के दर्शन हो रहे हैं। तरस गए थे पंडित बनारसीदास, भूधरदास आदि विद्वान, जिनको अपने जीवनकाल में मुनियों के दर्शन ही नहीं मिले। उनके हृदय की पीड़ा उनके भजन की पंक्तियों में स्पष्ट झलकती है।
उनके भजनों में कई स्थानों पर लिखा हुआ मिलता है - ‘कब मिलें वे गुरुवर उपकारी’। कितनी आस्था और भक्ति थी उनकी गुरुओं के प्रति। हमें सच्चे दिगम्बर गुरुओं की मुक्त हृदय से वंदना करनी चाहिए और उनके त्याग व तपस्या की अनुमोदना करनी चाहिए। साथ ही यह भावना करनी चाहिए कि जब तक मेरी जिह्वा में क्षमता रहेगी तब तक मैं अपने गुरु की महिमा का गुणगान करता रहूँगा। मेरे लिए वे परम सौभाग्य के क्षण होंगे।
बंधुओं! भक्ति कभी हेय बुद्धि से नहीं होती बल्कि उपादेय बुद्धि से गद्गद् होकर की जाती है तभी उसमें अतिशय दिखाई देते हैं।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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