धर्म किसी भी स्थान पर रह कर किया जा सकता है
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
धर्म किसी भी स्थान पर रह कर किया जा सकता है
महानुभावों! धर्म किसी भी स्थान पर रह कर किया जा सकता है। धर्म ही संसार रूपी जेल से मुक्ति का मार्ग है। धर्म घर, मंदिर, चौराहे पर या खुले स्थान पर या फिर जेल में भी किया जा सकता है। धर्म का अर्थ है - किसी को दुःख न देना, किसी के प्रति घृणा या शत्रुता का भाव न रखना। मुनि श्री कहते हैं कि दुःख देने से दुःख मिलता है, घृणा करने से घृणा मिलती है, शत्रुता करने से शत्रुता मिलती है।
मानव तन मिला है तो हे मानव! सभी पापों को त्याग कर अपने हृदय में सुप्त पड़े हुए परमात्मा के अंश (बीज) को अंकुरित करने का प्रयास करो जिससे परमात्मा के निकट पहुँचा जा सके। परमात्मा से साक्षात्कार हो सके, क्योंकि यह मानव जन्म बहुत दुर्लभता से प्राप्त होता है। तुम मानव अर्थात् मनु की संतान होकर उस जैसे कार्य नहीं कर पा रहे हो तो अपने आप को धोखा दे रहे हो।
सुख और शांति खोजने के लिए तुम बाहर भटकते हो पर वह तो तुम्हारे अंदर ही है। आज भाई जीवित है पर उसके साथ होने वाला भाईचारा मर गया है। निःस्वार्थ प्रेम समाप्त हो गया है। यही कारण है कि तुम संसारी बन कर देह की जेल में कैद होकर संसार में परिभ्रमण कर रहे हो। तुम्हारी आत्मा इस कैद में छटपटा रही है। उसे मोक्ष मार्ग में लगा कर जन्म-मरण की कैद से मुक्त करो।
मुनिवर कहते हैं कि मानव वह है जिसके अंदर मानवता हो। जिस के अंदर दया नहीं, करुणा नहीं, वह मानव कहलाने का भी अधिकारी नहीं। मानव अपनी प्रकृति (स्वभाव) के माध्यम से मानव कहलाता है, आकार के माध्यम से नहीं। यदि उसके अंदर इंसानियत नहीं तो वह इंसान कहलाने का अधिकारी कैसे हो सकता है? मानव में दानव के गुण आ जाएं तो हम उसे मानव कैसे कह सकते है?
मानव बनने के लिए धर्म की राह पर चलना होगा। हम सोचते हैं कि मंदिर ही धर्म-ध्यान करने का स्थल है, जबकि महान पुरुषों के गुणों का चिंतन जेल में रह कर भी किया जा सकता है। महान पुरुषों की जीवनी पढ़ कर उनके गुणों का ध्यान करो, उनके चेहरे पर दिखाई देने वाले तेज, उनकी वेषभूषा और आचरण के विषय में मनन करो।
इस प्रकार तुम्हारे मन में प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य की भावना आएगी जो तुम्हें धर्म के मार्ग पर ले जा कर सुख-शांति की अनुभूति कराएगी। तुम वीतरागी भगवान महावीर या वीतरागी स्वरूप में भगवान राम और हनुमान के भक्त हो। उनके द्वारा बताए गए दया के मार्ग को छोड़ कर यदि कोई दूसरा मार्ग अपनाओगे तो तुम अपने जीवन की अमूल्य निधि को खो दोगे।
तुम अपने अंदर परमात्मा के बीज को अंकुरित करो, उसे धर्मभावना से सिंचित करके पल्लवित और पुष्पित करो। अंदर के पाषाण को तराश कर परमात्मा की मूर्ति बनाओ लेकिन सम्यक् ज्ञान के द्वारा। यदि ज्ञान सम्यक् नहीं होगा तो पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाएगा। अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए महान संतों के सानिध्य में समर्पण की भावना से रहो। परमात्मा ने तुम पर दया की और फिर भी तुमने उसका सदुपयोग नहीं किया तो यह जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा।
तुम परमात्मा की आराधना करके अपनी आत्मा को शरीर से मुक्त कर सकते हो। वरना फिर इस शरीर की चारदीवारी की जेल में कैद होना पड़ेगा। आगे मुनि श्री कहते हैं कि सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाए तो वह भूला नहीं कहलाता। अतः अब तुम्हें ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे देह की जेल में कैद इस आत्मा को दूसरी जेल न बदलनी पड़े। ऐसा खेल खेलना होगा कि तुम सीधे परमात्मा के बन कर परमात्मा के पास पहुँच जाओ।
अपने व्यवहार को बदलो। आपको दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करना होगा जैसा आप स्वयं के लिए चाहते हैं। परमात्मा किसी का अच्छा या बुरा नहीं करता हम स्वयं ही अच्छा या बुरा काम करते हैं और परमात्मा को दोष देते हैं। अच्छे कार्य ही आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं। तुम भविष्य के परमात्मा हो। तुम परमात्मा की भूतकाल की पर्याय में हो और भविष्य में परमात्मा बन सकते हो। अतः ऐसा संकल्प लो जिससे न किसी को बुरा कहोगे और न ही सोचोगे। इससे अपना ही बुरा होगा।
रामायण में कहा गया है -
‘परहित सरस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई’।
सूखा फल कभी रसदार नहीं होता,
अपना साया भी मददगार नहीं होता।
किंतु मज़बूरियां मानव को गिरा देती हैं,
वरना जन्म से कोई गुनहगार नहीं होता।।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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