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Showing posts from February, 2021

आत्मा का चिंतन क्या है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज आत्मा का चिंतन क्या है महानुभावों! आत्मा कोई मूर्त वस्तु नहीं है, कोई व्यक्ति नहीं है। वह अपने अन्दर छिपी हुई एक चिन्मय शक्ति है। आत्मा का लक्षण है - ज्ञान। ज्ञान की उपासना आत्मा की उपासना है। ज्ञानी की सेवा आत्मा की सेवा है। ज्ञान का प्रचार आत्मा की प्रभावना है। मुनि ने कहा कि आत्मा का लक्षण है - दर्शन। दर्शन अर्थात् शुद्ध विश्वास, अपनी शक्तियों का विश्वास, अपनी शुद्धता और पवित्रता का विश्वास। आप तुच्छ या शुद्र नहीं, महान हैं। आपके भीतर सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्ति निहित है। उसका ज्ञान करो और इस पर विश्वास करो। मेरे भीतर छिपा है भगवान, तू मनवा काहे बना नादान। सिद्ध बुद्ध निर्मल निर्लेपी, अब इसको पहचान।। रत्न छिपा माटी के भीतर, मूरख अब तो जान। तेरे भीतर छिपा है भगवान, तू मनवा काहे बना नादान।। आत्मा का लक्षण है - चारित्र, सम्पूर्ण वीतरागता। धर्मस्ति करणं चारित्रं। समस्त कर्मों से, कषायों से, विभावों से खाली हो जाना ही चारित्र है। अपने आप में विचरण करना ही चरण अर्थात् संयम है। इसलिए चारित्र को चरण कहा है। चरण ही व्यवहार में आचरण बन जाता है। आत्म-गुणों का आचरण कर...

धर्म का तिरस्कार करके धन नहीं कमाया जा सकता

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज धर्म का तिरस्कार करके धन नहीं कमाया जा सकता महानुभावों! धर्म का तिरस्कार करके धन नहीं कमाया जा सकता। चार पुरुषार्थों का क्रम है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पहले धर्म कमाया जाता है, फिर अर्थ अर्थात् धन। धर्म पुरुषार्थ के अभाव में अर्थ पुरुषार्थ करना अन्याय है, काम पुरुषार्थ व्यभिचार है और मोक्ष पुरुषार्थ तो कल्पना जन्य ही है। तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि-प्रसिद्धि के लिए धर्म पुरुषार्थ श्रेष्ठ और ज्येष्ठ है। मुनि श्री ने कहा कि धर्म से धन का विकास होता है। धन तो मात्र साधन है। वह चाहे तो अपने सदुपयोग से कर्त्ता को धर्म की ओर प्रेरित कर सकता है और चाहे तो अपने दुरुपयोग से धरातल की गहराइयों में भी धकेल सकता है। इसके विपरीत धर्म का तो केवल सदुपयोग ही होता है। वहाँ दुरुपयोग का कोई स्थान नहीं है। जहाँ धर्म का दुरुपयोग दिखाई देता है, वहाँ छल है, कपट है, ढकोसला है जबकि धर्म का ढकोसले से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म अपने विकास के साथ-साथ सूर्य और सुमन की तरह समाज का भी निरंतर विकास करता है। संवेदनशीलता को तो गहराता ही है, वात्सल्य-पराग भी भरता है, किन्तु धन अपने विका...

महापुरुषों के संसर्ग से स्थान पवित्र हो जाता है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज महापुरुषों के संसर्ग से स्थान पवित्र हो जाता है महानुभावों! महापुरुषों के संसर्ग से स्थान पवित्र हो जाते हैं क्योंकि मूलतः पृथ्वी पूज्य या अपूज्य नहीं होती। उसमें पूज्यता महापुरुषों के संसर्ग से आती है। मुनि श्री कहते हैं कि तीर्थभूमि के मार्ग की रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आगम से मनुष्य रज-रहित अर्थात् कर्म-मल रहित हो जाता है। तीर्थों पर भ्रमण करने से अर्थात् तीर्थयात्रा करने से संसार का भ्रमण छूट जाता है। आगे मुनि श्री ने कहा कि अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर यात्रा करना अधिक उपयोगी रहता है। द्रव्य की सुविधा होने पर यात्रा करना अधिक फलदायक रहता है। यदि यात्रा के लिए द्रव्य की अनुकूलता न हो, द्रव्य का कष्ट हो और यात्रा के निमित्त कर्ज़ लिया जाए तो उसकी यात्रा में निश्चिन्तता नहीं आ पाती। संकल्प-विकल्प बने रहते हैं। यात्रा आरम्भ करने के बाद मन में किसी प्रकार के विचार नहीं आने चाहिएं। मन में स्थिरता होनी चाहिए, तभी यात्रा करना शुभ एवं सर्वश्रेष्ठ होगा क्योंकि यात्रा करने का उद्देश्य पापों से मुक्ति व आध्यात्मिक शांति पाना है। मुनि श्री ने उपस्...

णमोकार मंत्र की महिमा

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज णमोकार मंत्र की महिमा महानुभावों! किसी गांव में एक सेठ रहता था। उसकी एक कन्या थी जिसका नाम श्रीमती था। बचपन में वह माता-पिता के साथ देव-दर्शन के लिए जाती थी। मुनियों व आर्यिकाओं के दर्शन करती और और उनसे व्रत आदि का नियम लेती। एक दिन उसने मुनिराज से णमोकार मंत्र के माहात्म्य के विषय में पूछा। मुनिराज ने बताया कि आगम के अनुसार सहस्रों पाप करके और सैंकड़ों जीवों की हिंसा करके मनुष्य ही नहीं, तिर्यंच भी इस मंत्र के जाप के प्रभाव से उच्च कुल व देव गति को प्राप्त करते हैं और स्वर्ग के सुख भोगते हैं। इस मंत्र के स्मरण से आत्मा पवित्र हो जाती है। मन में अपूर्व शक्ति का संचार होता है। संसार का कठिन से कठिन कार्य भी इस णमोकार मंत्र के स्मरण मात्र से सिद्ध हो जाता है। जो श्रद्धा और विश्वासपूर्वक इस महामंत्र का चिंतन करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। हर कार्यारम्भ में इस मंत्र का स्मरण कर लेने से वह कार्य निर्विघ्न पूरा होता है। मुनि श्री कहते हैं कि 5 पदों के 35 अक्षरों में एक विद्युत शक्ति निहित है। अनादि मूल मात्रिकाएं इस मंत्र में गर्भित हैं, अतए...

मौन से ही विकास

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज मौन से ही विकास महानुभावों! आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए मौन अति आवश्यक है। भाषा दूसरों से जोड़ती है और स्वयं से तोड़ती है जबकि मौन स्वयं से जोड़ता है और ओरों से संबंध तोड़ता है। मौन ही मुक्ति का माध्यम है। भाषा तो द्वन्द्व को जन्म देती है, संसार को बढ़ाती है। वचन-व्यवहार तो प्रायः विग्रह व विद्रोह का मूल कारण होता है जबकि मौन स्वतः ही हमारे 50% संसार को समाप्त कर देता है। तुम मौन-व्रत लेकर बैठ जाओ तो कोई तुम्हारे पास नहीं आएगा। यदि कोई भूला-भटका आ भी गया तो वह भी अधिक देर तक नहीं ठहरेगा। जल्द से जल्द वहां से भागने की तरकीब सोचेगा। यही कारण है कि महावीर स्वामी ने अपने साधकों से कहा - मौन परम तप है। मौन ही संवर, निर्जरा का कारण है। मौन ही आत्मा की भाषा है। मौन ही मुखर होने का माध्यम है। मौन के वृक्ष पर ही शान्ति के फल लगते हैं। यदि तुमने मौन को साध लिया तो जीवन में होने वाले एक तिहाई पापों से स्वतः ही बच जाओगे। मौन के अभ्यास के लिए दिन में कम से कम आधे घंटे का मौन अवश्य रखें। जहां विषाद या संघर्ष की स्थिति निर्मित हो वहां तुरन्त मौन व्रत धारण कर लो। ...

जीवन जीने के लिए जागना ज़रूरी है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जीवन जीने के लिए जागना ज़रूरी है तज्जयति परं ज्योति समं समसौरनन्तपयायैः, दर्पणतव इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र। महानुभावों! जीना है तो जागना होगा। जागकर जीने वाला व्यक्ति ही जीवन का आनन्द उठा सकता है। जो होश में जीता है, वह होशियार होता है। धर्म होश में जीने की कला है और जो मूर्च्छा में जीते हैं, वे मूर्ख होते हैं। धर्म होश में जीने की कला सिखाता है। जो आँखें खोलकर जीते हैं, वे ही आत्मा से साक्षात्कार कर पाते हैं। परमात्मा को आँख से देखना है तो जीवन को आग से गुज़रना पड़ता है। तपश्चर्या की अग्नि से गुज़र कर ही आत्मा परमात्मा बनती है। जो तपता नहीं, वह पकता नहीं। तप पकने की प्रयोगशाला है। आम पकता है तपने के बाद और आत्मा परमात्मा बनती है तपस्या के बाद। किसी के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि आत्मा की शुद्धि के लिए शरीर को तपाने का क्या लाभ ? बन्धुओं! यदि दूध को तपाना है तो क्या करोगे ? दूध को सीधे आग पर रख दोगे क्या ? पहले उसे तपेली में डालना होगा और जब तपेली को आग पर रखेंगे तो पहले तपेली तपेगी फिर वह दूध को तपाएगी। यही तो भगवान महावीर कहते हैं कि यदि ...

पहले श्रेष्ठता से हम स्वयं जुड़ें

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज पहले श्रेष्ठता से हम स्वयं जुड़ें महानुभावों! जो अमृतधरा मन के अंदर से झरकर संसार की रुक्षता को दूर करती थी, वह आज कहीं दिखाई नहीं देती। व्यक्ति, परिवार, संघ, समाज, देश और सृष्टि के बीच सारे संबंध बिखराव की दिशा में जा रहे हैं। निरंतर तेजी से बढ़ती हुई विपरीतता एवं विषमता जीवन को जीवन के ढंग से नहीं जीने देती। आज हम जीने की निर्दोष जीवंत शैली को भूल गए हैं। विविध दोषों के विष को दूर करने के लिए या कराने के लिए उपदेश के नाम पर बहुत सारा शोर हमारे कानों में पड़ता है। पर मन की सतह तक वह उपदेश पहुँच ही नहीं पाता। वह तो ऊपरी सतह पर ही खो जाता है। यह विचार कई बार मन में कौंधता है कि संघ, संगठन, समाज-सुधार, संस्कृति-सुरक्षा, आध्यात्मिक अभ्युदय आदि के बारे में लेखन, प्रवचन, सम्मेलन, अधिवेशन, चर्चा एवं गोष्ठियों व प्रतियोगिताओं में बहुत कुछ कहे-सुने जाने के बावजूद ये सारे प्रयत्न चारों ओर व्याप्त विसंगतियों को दूर करने में सहायक सिद्ध क्यों नहीं होते ?   आखिर इसका क्या कारण है ? हर नारा खोखला और हर उपदेश का स्वर बेमानी सा क्यों लगता है ? मैं इस निष्कर्ष पर प...

सीधा सादा जीवन

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज सीधा सादा जीवन सीधा सादा जीवन होने पर ही उत्तमता प्राप्त होती है। महानुभावों! सीधा सादा जीवन होने पर ही जीवन में श्रेष्ठता आती है, तभी जीवन उत्तम बनता है। मृदुता पाने के लिए कठोरता को छोड़ना अनिवार्य है। मृदुता हमारी आत्मा का स्वभाव है, कठोरता नहीं। कठोरता बाहर से आने वाली तरंग के समान है जो पत्थर में होती है। मान-कर्म के उदय में मान-रूप कषाय उत्पन्न होता है, यह उसका स्वभाव है पर मान नहीं करना हमारी आत्मा का पुरुषार्थ है। मुनि श्री ने कहा कि सम्मान की सामग्री मिलने पर, प्रशंसा की घड़ियां सन्मुख होने पर भी स्वयं को मान कषाय से दूर रखना महान पुरुषार्थ है। जैसे कली के रूप में रहने पर फूल की सुगंध वृक्ष में सुरक्षित रहती है लेकिन जब वही कली फूल बन कर खिल जाती है तो उसकी सुगंध वातावरण में फैल जाती है और वह फूल कुछ ही समय के बाद मुरझा जाता है। जो अपने मन को सुरक्षित रखता है वह अपनी साधना को देर तक बनाए रख सकता है और जो मन को खंडित कर देता है, उसकी साधना भी खंडित हो जाती है। मुनि श्री ने कहा कि कषायों को घटाने के लिए उनका वास्तविक ज्ञान होना भी अति आवश्यक है। क...

तीन वृत्तियाँ

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज तीन वृत्तियाँ महानुभावों! सभी प्राणी सुखी होना चाहते हैं। हर हाल में इसी कोशिश में रहते हैं कि किसी तरह मुझे सुख मिल जाए, दुःख का तो नामोनिशान भी न रहे। पर जब तक सुख की सही राह पर नहीं चलोगे तब तक सुख कहाँ से मिलेगा ? व्यक्ति ज्यों-ज्यों सुख के भ्रम में उसके पीछे-पीछे दौड़ता है, त्यों-त्यों दुःख ही उसके समीप आता रहता है। वह सुख पाने का भरसक प्रयत्न करता है पर यह उसके वश में नहीं है कि वह हर तरह का सुख प्राप्त कर ले। सच बात तो यह है कि रास्ता सही होगा तो सुख अवश्य मिलेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह सुख आज मिलेगा या कल। वह तो भविष्य के गर्भ में है। जब पुण्य कर्म का उदय होगा तभी उसका जन्म होगा। पर यह तो सुनिश्चित है कि उसका जन्म होगा तो अवश्य। यदि व्यक्ति ने सही प्रयास किया है तो वह कभी असफल नहीं हो सकता। बिना सही प्रयत्न के यदि वह सुख की कामना करता है तो बदले में कष्ट का स्वागत भी करना पड़ सकता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। जितने प्रकार के दिमाग हैं, उतनी ही प्रकार की बुद्धि है। जितने कुएं हैं, उतने ही प्रकार का पानी है। जब सो...