तीन वृत्तियाँ

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

तीन वृत्तियाँ

महानुभावों! सभी प्राणी सुखी होना चाहते हैं। हर हाल में इसी कोशिश में रहते हैं कि किसी तरह मुझे सुख मिल जाए, दुःख का तो नामोनिशान भी न रहे। पर जब तक सुख की सही राह पर नहीं चलोगे तब तक सुख कहाँ से मिलेगा? व्यक्ति ज्यों-ज्यों सुख के भ्रम में उसके पीछे-पीछे दौड़ता है, त्यों-त्यों दुःख ही उसके समीप आता रहता है। वह सुख पाने का भरसक प्रयत्न करता है पर यह उसके वश में नहीं है कि वह हर तरह का सुख प्राप्त कर ले। सच बात तो यह है कि रास्ता सही होगा तो सुख अवश्य मिलेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।

यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह सुख आज मिलेगा या कल। वह तो भविष्य के गर्भ में है। जब पुण्य कर्म का उदय होगा तभी उसका जन्म होगा। पर यह तो सुनिश्चित है कि उसका जन्म होगा तो अवश्य। यदि व्यक्ति ने सही प्रयास किया है तो वह कभी असफल नहीं हो सकता। बिना सही प्रयत्न के यदि वह सुख की कामना करता है तो बदले में कष्ट का स्वागत भी करना पड़ सकता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। जितने प्रकार के दिमाग हैं, उतनी ही प्रकार की बुद्धि है। जितने कुएं हैं, उतने ही प्रकार का पानी है। जब सोचने की दिशा ही भिन्न है तो अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सुख पाने के उपाय भी भिन्न-भिन्न ही होंगे। वे उपाय भी एक जैसे कैसे हो सकते हैं? एक राजनीतिक क्षेत्र के व्यक्ति के अनुसार सुख प्राप्ति का उपाय है - पैदावार बढ़ाना। वे एक ही बात कहते हैं - ‘सब खेती करो, अनाज पैदा करो, खूब अनाज होगा, खाने से भी खत्म नहीं होगा और चारों ओर अमन चैन की वंशी बजेगी। सब सुखी दिखाई देंगे।’ यह सुख पाने की उनकी अपनी धारणा है। सब खेती करें, यह तो उनके वश की बात है पर समय पर वर्षा हो जाए, यह तो उनके हाथ में नहीं है। अनावृष्टि या बाढ़ आ जाए तो उसे तो वे नहीं रोक पाएंगे।

आदमी यह सोच कर बंदर, सियार, मोर जैसे तिर्यंचों को मार देता है कि वे आदमियों के हिस्से का अनाज खा कर उसमें भी हिस्सा बाँट लेते हैं पर इससे क्या अन्तर पड़ेगा? आदमी को तो फिर भी अपने हिस्से का ही अनाज मिलेगा चाहे वह इन पशुओं को मार मार कर ढेर क्यों न लगा दे? यह सुख पाने का तरीका नहीं हो सकता।

रोटी, कपड़े की समस्या तो क्षणिक समस्या है, स्थायी नहीं। कभी उलझती है और कभी सुलझती है। आम आदमी और राजनीतिज्ञों द्वारा सोचे गए समाधान से सुख प्राप्ति का हल निकलना संभव नहीं है। धार्मिक व्यक्ति शांति और सुख प्राप्ति का उपाय बताते हैं - ‘सुधरो और सुधारो।’ अपने विचारों को भी ऊँचा उठाओ और दूसरों के विचारों को भी ऊँचाइयों तक ले जाओ। आज बहुत बड़ी संख्या में साधु-संत, धर्मगुरु आदि इस ऊँचाई तक लोगों को पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं पर लोग हैं कि उनकी बातें सुनने और समझने को तैयार ही नहीं हैं। वे तो जिस स्तर पर सोचते हैं उससे एक कदम भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं हैं। टस से मस न होने की कसम खा कर बैठे हैं।

आखिर ऐसा क्यों? क्या धर्मगुरुओं का प्रयास भी निष्फल हो जाएगा?

नहीं, चाहे उनका सुधार का क्रम शिथिल हो गया हो पर नाकामयाब नहीं हो सकता। मुझे तो इसका एक ही कारण प्रतीत होता है कि जब तक एक सुधारक स्वयं को नहीं सुधारेगा तब तक उसकी बातों का लोगों पर प्रभाव कैसे पड़ेगा? वे खुद ही ऊँचाइयों पर नहीं पहुँचे तो दुनिया को क्या पहुँचाएंगे? जो स्वयं ही पतित हैं वे दुनिया को पवित्र बना सकते हैं क्या? यह कैसे मुमकिन हो सकता है? वे गला फाड़ कर चिल्लाते अवश्य हैं पर उनकी आवाज़ में ओज नहीं है। वे कहते तो बहुत हैं पर करते कुछ नहीं। मुख की आवाज़ हृदय की आवाज़ बनेगी तभी वह दूसरे के हृदय तक पहुँचेगी। अन्यथा कंठ की आवाज़ मिनटों में हवा हो जाए तो कौन सी बड़ी बात है।

पहले वे तथाकथित धर्मगुरु खुद सुधरें और दूसरों के लिए आदर्श बनें तभी उनकी बातों का अन्य लोगों पर प्रभाव पड़ेगा। दुनिया में इतनी बुराइयाँ हैं कि उनकी गिनती करना भी मुश्किल है। उनमें से तीन वृत्तियाँ जो सबसे घातक हैं, उनके बारे में यहाँ चर्चा करते हैं।

1. संग्रह वृत्ति

2. हिंसा वृत्ति

3. स्वार्थ वृत्ति

1. संग्रह वृत्ति - बुराइयों में संग्रह वृत्ति का अपना एक विशेष स्थान है। उसमें भी सबसे पहले है - अर्थ संग्रह करना। आज अर्थ संग्रह की दौड़ में जो होड़ चल रही है वह किसी से अज्ञात नहीं है। धन का संग्रह करने की वृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। यही मानव का एकमात्र लक्ष्य बन गया है। ऐसा लगता है कि आवश्यकता कम है और संग्रह अधिक। भविष्य की चिंता अधिक है, वर्तमान की कम। यहाँ तक कह दिया जाता है कि धन नहीं होगा तो धर्म कैसे होगा? धर्म में भी धन का प्रथम स्थान हो गया है। याद रखिए कि केवल धन से कभी धर्म नहीं हो सकता। धर्म आत्मा का विषय है, वह तो आत्मा का चिंतन करने से ही होगा। अर्थ तो अनर्थ का मूल है। उससे व्यक्ति का दिमाग विकृत हो जाता है। धन के प्रभाव से व्यक्ति हिताहित को भी भूल जाता है।

दो भाई परदेश में कमाने के लिए गए। वे गरीब अवश्य थे पर दोनों में बहुत मेल-मिलाप था। परदेश में बहुत धन कमाया और अपने देश वापिस आने के लिए चल पड़े। धन के संग्रह के प्रभाव से बड़े भाई के मन में लोभ वृत्ति का जन्म हो गया। वह सोचने लगा कि हमने इतना धन कमाया है पर घर जाते ही इसके दो भाग करने पड़ेंगे। आधे धन का हकदार तो यह छोटा भाई हो जाएगा। कितना अच्छा हो यदि मैं अपने सोते हुए छोटे भाई को मारकर नदी में बहा दूँ। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। फिर तो मैं ही इस धन का मालिक बन जाऊँगा। उसने भाई को मारने के लिए हाथ बढ़ाया। अभी गले तक ही पहुँचा था उसका हाथ और उसने ज्यों ही चाहा कि भाई का गला दबा दूँ त्यों ही उसे आत्म ज्ञान हुआ। उसकी आत्मा ने प्रेरणा दी - तू क्या करने जा रहा है? धन के लोभ में भाई की हत्या! क्या यह धन तेरे साथ जाएगा? 

अन्तरात्मा की आवाज़ से वह चेत गया। उसने सोचा कि ऐसा धन किस काम का जो आदमी की मति भ्रष्ट कर दे। उसने नौली (रुपया रखने की थैली) नदी में बहा दी। पानी में थैली गिरने की आवाज़ से छोटा भाई जाग गया।

उसने पूछा - ”यह कैसी आवाज़ थी?“ 

”मैंने धन को नदी में बहा दिया।“ उत्तर मिला।

”ऐसा क्यों किया? इतने दिन में कितनी मुश्किल से तो कमाया था!“

“हाँ, इतनी मुश्किल से कमाया था, पर इसे न बहाता तो तुझे ही बहा देता।” भाई ने कहा। छोटे ने कहा - “मेरे मन में भी यही विचार आया था। आप धन न बहाते तो मैं भी कोई तरकीब सोचता इस सारे धन को पाने की। हो सकता है, मैं भी आप को मार देता।”

दोनों बहुत खुश थे धन को पानी में बहाकर। चलो, अच्छा ही हुआ जो इस जान की जोखिम से छुटकारा मिल गया। दोनों घर पहुँचे। लोग मिलने आने लगे। उनकी बहन भी आई। वह भोजन बनाने बैठी। मछली बनाने के लिए उसमें चीरा लगाया ही था कि उसमें से एक नौली बाहर निकल पड़ी।

उसके गिरने की आवाज़ से पास ही सोई हुई बूढ़ी माँ जाग गई। जो चलने-फिरने, उठने-बैठने में भी असमर्थ थी, वह पैसे की खनक सुन कर तत्काल उठ कर बैठ गई।

तुरन्त उसने पूछा - “बेटी! यह कैसी आवाज़ थी?

बेटी ने कहा - “कुछ नहीं मां! हाथ से चाकू गिर गया था बर्तन में, उसी की आवाज़ थी।”

माता ने कहा - “नहीं! यह तो रुपयों की आवाज़ जैसी थी।”

बस! माता धीरे-धीरे उसके पास खिसक कर आने लगी। बेटी ने सोचा कि हाथ में आया धन छिन न जाए। मैं यह रुपया कैसे हज़म करूँ? उसने आव देखा न ताव, माता के सिर पर मूसल दे मारी और वह थैली लेकर भागने लगी। उधर माता के मुख से एक चीख निकली और वहीं उसकी जीवनलीला समाप्त हो गई।

बाहर बैठे हुए बेटों ने जब चीख की आवाज़ सुनी तो वे दौड़ कर भीतर आए और देखा कि माता तो मरी पड़ी है और बहन भी गायब है। बाहर आकर देखा तो बहन दौड़ती जा रही थी। वे दोनों बहन के पीछे भागे यह जानने के लिए कि माजरा क्या है? उन्होंने उसे पकड़ लिया कि तुम भागती हुई कहाँ जा रही थी? बहन ने पहले तो कुछ नहीं बताया, जब वे उसे घर लेकर आए तो उसने कहा कि माँ मुझ पर रुपयों की चोरी का झूठा इल्जाम लगा रही थी। भाइयों ने उसकी तलाशी ली तो उसके पास नौली निकली जिस पर उसके भाइयों का नाम लिखा था और उसे पानी में विसर्जित कर दिया था। उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा - “यह धन-संग्रह की वृत्ति ऐसी ही होती है जो हमारी माता की जान भी ले बैठी।”

अब यह तो संभव नहीं लगता कि मेरे कहने से सब लोग परिग्रह का बिल्कुल त्याग कर देंगे पर उसे अधिक प्रश्रय तो न दें, उसे ही सब कुछ न समझें। ऐसी मेरी भावना है।

इसी प्रकार हिंसा वृत्ति और स्वार्थ वृत्ति भी मनुष्य के सुख में बाधक हैं। बहन ने हिंसा वृत्ति और स्वार्थ वृत्ति दोनों को अपना कर क्या पाया? अपनी माता को भी खो बैठी और सबकी नज़रों में अपमानित भी होना पड़ा। क्या वह सुखी हो पाई?

अतः अशांति की जड़ में ये तीनों वृत्तियाँ ही हैं। आज इन वृत्तियों के कारण जायज नाजायज सभी काम होते हैं। इस दुर्भावना पर ध्यान केन्द्रित करके अध्यात्म को समझना अति आवश्यक है। कोरा भौतिकवाद, व्यक्ति को पतन के गर्त में धकेल देता है। अतः आत्म तत्व को गहराई से समझिए। सिर्फ भौतिकता में लिप्त मत होइए। प्रवचन का समय समाप्त हो गया है। अंत में एक मुक्तक सुना कर विराम लेंगे -

कभी है पतझड़, तो कभी वसंत है,

कभी है आदि, तो कभी अंत है।

इन बदलते नज़ारों को पहचान ले जो,

इस दुनिया में वही सच्चा संत है।।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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