महापुरुषों के संसर्ग से स्थान पवित्र हो जाता है
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
महापुरुषों के संसर्ग से स्थान पवित्र हो जाता है
महानुभावों! महापुरुषों के संसर्ग से स्थान पवित्र हो जाते हैं क्योंकि मूलतः पृथ्वी पूज्य या अपूज्य नहीं होती। उसमें पूज्यता महापुरुषों के संसर्ग से आती है। मुनि श्री कहते हैं कि तीर्थभूमि के मार्ग की रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आगम से मनुष्य रज-रहित अर्थात् कर्म-मल रहित हो जाता है। तीर्थों पर भ्रमण करने से अर्थात् तीर्थयात्रा करने से संसार का भ्रमण छूट जाता है।
आगे मुनि श्री ने कहा कि अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर यात्रा करना अधिक उपयोगी रहता है। द्रव्य की सुविधा होने पर यात्रा करना अधिक फलदायक रहता है। यदि यात्रा के लिए द्रव्य की अनुकूलता न हो, द्रव्य का कष्ट हो और यात्रा के निमित्त कर्ज़ लिया जाए तो उसकी यात्रा में निश्चिन्तता नहीं आ पाती। संकल्प-विकल्प बने रहते हैं। यात्रा आरम्भ करने के बाद मन में किसी प्रकार के विचार नहीं आने चाहिएं। मन में स्थिरता होनी चाहिए, तभी यात्रा करना शुभ एवं सर्वश्रेष्ठ होगा क्योंकि यात्रा करने का उद्देश्य पापों से मुक्ति व आध्यात्मिक शांति पाना है।
मुनि श्री ने उपस्थित यात्रियों को निर्देश देते हुए कहा कि तीर्थयात्रा में विनय, श्रद्धा, भक्ति आदि गुणों का होना अनिवार्य है। तीर्थयात्रा करते समय मन में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष एवं कषायों आदि के भाव हों तो तीर्थयात्रा निष्फल हो जाती है; अतः तीर्थयात्रा करते समय ऐसे कार्य मन, वचन, काया से कभी न करें। प्राणीमात्र के कल्याण की भावना मन में रखें तथा संसार मार्ग से छूटने का प्रयत्न करें। मुनि श्री ने कहा कि तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की 20 टोकों से 20 तीर्थंकर मोक्ष गए हैं और उनके साथ-साथ 86 अरब 488 कोड़ा कोड़ी केवली, 1027 करोड़ 38 लाख 20 हज़ार 323 मुनि भी कर्मों का नाश करके मोक्ष पधारे। इसलिए इस भूमि का कण-कण पूजनीय एवं वंदनीय है। इसकी एक बार वंदना करने से 33 कोटि 234 करोड़ 74 लाख उपवास का फल मिलता है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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