धर्म का तिरस्कार करके धन नहीं कमाया जा सकता
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
धर्म का तिरस्कार करके धन नहीं कमाया जा सकता
महानुभावों! धर्म का तिरस्कार करके धन नहीं कमाया जा सकता। चार पुरुषार्थों का क्रम है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पहले धर्म कमाया जाता है, फिर अर्थ अर्थात् धन। धर्म पुरुषार्थ के अभाव में अर्थ पुरुषार्थ करना अन्याय है, काम पुरुषार्थ व्यभिचार है और मोक्ष पुरुषार्थ तो कल्पना जन्य ही है। तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि-प्रसिद्धि के लिए धर्म पुरुषार्थ श्रेष्ठ और ज्येष्ठ है। मुनि श्री ने कहा कि धर्म से धन का विकास होता है। धन तो मात्र साधन है। वह चाहे तो अपने सदुपयोग से कर्त्ता को धर्म की ओर प्रेरित कर सकता है और चाहे तो अपने दुरुपयोग से धरातल की गहराइयों में भी धकेल सकता है। इसके विपरीत धर्म का तो केवल सदुपयोग ही होता है। वहाँ दुरुपयोग का कोई स्थान नहीं है।
जहाँ धर्म का दुरुपयोग दिखाई देता है, वहाँ छल है, कपट है, ढकोसला है जबकि धर्म का ढकोसले से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म अपने विकास के साथ-साथ सूर्य और सुमन की तरह समाज का भी निरंतर विकास करता है। संवेदनशीलता को तो गहराता ही है, वात्सल्य-पराग भी भरता है, किन्तु धन अपने विकास के साथ-साथ धनार्थी या धन-स्वामी में क्रूरता पैदा करता है, करुणा, दया के स्रोत को सुखा देता है। मुनि श्री ने आगे कहा कि धन हड़पने की लिप्सा अपने आर्थिक विकास के साथ-साथ हज़ारों लाखों प्राणियों के पतन का गड्ढ़ा खोद देती है। धर्म और धन में यही अन्तर है। एक निर्भयता का कारण है और दूसरा भय पैदा करता है। जहाँ धर्म है, वहाँ आनंद है और जहाँ धन है, वहाँ कलह है।
मुनि श्री ने कहा कि मैं यह नहीं कहता कि धन का विकास न करो, पर ध्यान रखो कि तुम्हारा धंधा अंधा न हो, अंधाधुंध न हो। आपके अर्थ विकास की प्रक्रिया किसी के खून से सनी हुई न हो, उसकी नींव शोषण की ईंटों से न रखी गई हो। यदि आप धर्म से धन कमाते हैं तो आप धार्मिक हैं, अहिंसक हैं।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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