मौन से ही विकास
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
मौन से ही विकास
महानुभावों! आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए मौन अति आवश्यक है। भाषा दूसरों से जोड़ती है और स्वयं से तोड़ती है जबकि मौन स्वयं से जोड़ता है और ओरों से संबंध तोड़ता है। मौन ही मुक्ति का माध्यम है। भाषा तो द्वन्द्व को जन्म देती है, संसार को बढ़ाती है। वचन-व्यवहार तो प्रायः विग्रह व विद्रोह का मूल कारण होता है जबकि मौन स्वतः ही हमारे 50% संसार को समाप्त कर देता है।
तुम मौन-व्रत लेकर बैठ जाओ तो कोई तुम्हारे पास नहीं आएगा। यदि कोई भूला-भटका आ भी गया तो वह भी अधिक देर तक नहीं ठहरेगा। जल्द से जल्द वहां से भागने की तरकीब सोचेगा। यही कारण है कि महावीर स्वामी ने अपने साधकों से कहा - मौन परम तप है। मौन ही संवर, निर्जरा का कारण है। मौन ही आत्मा की भाषा है। मौन ही मुखर होने का माध्यम है। मौन के वृक्ष पर ही शान्ति के फल लगते हैं। यदि तुमने मौन को साध लिया तो जीवन में होने वाले एक तिहाई पापों से स्वतः ही बच जाओगे।
मौन के अभ्यास के लिए दिन में कम से कम आधे घंटे का मौन अवश्य रखें। जहां विषाद या संघर्ष की स्थिति निर्मित हो वहां तुरन्त मौन व्रत धारण कर लो। फिर देखो कि आपके जीवन का कितना विकास होगा क्योंकि शब्द एक अमूल्य सम्पदा है। जैसे अपने रुपए को मितव्ययता से खर्च करते हो उसी प्रकार शब्दों के प्रयोग में भी सावधानी से काम लो। मितभाषी बनो, शब्दों को व्यर्थ में खर्च न करो, शब्दों की बर्बादी मतलब जीवन की बर्बादी। वाणी का संयम जीवन में अति आवश्यक है।
कटु वचन विद्वेष और विग्रह की जड़ है। बोलने की मनाही नहीं है लेकिन बोलने से पहले यह अवश्य सोच लेना चाहिए कि इस का परिणाम क्या होगा। एक बुद्धिमान और एक मूर्ख व्यक्ति में यही तो फर्क है कि बुद्धिमान बोलने से पहले सोचता है और एक मूर्ख व्यक्ति बिना सोचे ही बोल देता है, फिर बोलने के बाद सोचता है कि यह मैंने क्या बोल दिया? यह तो मूर्खता का ही लक्षण हुआ न! जो शब्द एक बार जुबान से निकल जाए फिर उन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रह जाता।
इसलिए भगवान महावीर ने कहा है कि वचन गुप्ति का पालन करो। मौन रखने से ऊर्जा का संचय होता है और कम बोलना स्वास्थ्य के लिए टॉनिक का काम करता है। कम बोलने से कम ऊर्जा का व्यय होता है। अतः भगवान महावीर ने अपने साधकों के लिए वचन गुप्ति की साधना को श्रेष्ठ बताया है। शिष्यों ने कहा कि भगवन्! जीवन भर तो मौन रहना संभव नहीं है तो महावीर स्वामी ने बताया कि साधकों! तुम भाषा समिति को स्वीकार करो अर्थात् बोलना ही हो तो हित-मित-प्रिय वचन बोलो। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जहां व जितनी आवश्यकता हो उतना ही बोलो।
क्या आपने कभी ख्याल किया है कि हमें देखने के लिए दो आँखें मिली हैं, सुनने के लिए दो कान मिले हैं, चलने के लिए दो पैर मिले हैं, देने के लिए दो हाथ मिले हैं पर बोलने के लिए एक ही जुबान मिली है? आखिर क्यों? भगवान कहते हैं कि तुम जितना देखो, जितना सुनो, जितना चलो और जितना दो, उससे आधा कहो। सुनो ज्यादा और बोलो कम, पर आज हो रहा है उल्टा। बोल सब रहे हैं और सुनने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। यही कारण है कि जीवन अस्त-व्यस्त नज़र आ रहा है।
बन्धुओं! प्राणी जगत में एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो केवल जीना ही नहीं चाहता बल्कि जानना भी चाहता है। जीवित रहना सभी जीवों का स्वभाव है पर मनुष्य जानने की जिज्ञासा भी रखता है। वास्तविक जानना तो स्वयं को जानना और पहचानना है। यदि स्वयं को जानता है तो आत्मा का कल्याण है वरना पर को जानते-जानते तो अनंत काल बीत गया और पर को ही निज समझने लगा। अब ज़रा अपने अंतर में झांको, स्वयं को निहारो, स्वयं को संभालो क्योंकि जीवन का सच्चा आनन्द स्वयं में लीन होने पर ही मिलेगा। जिसने आत्मा को जान लिया, उसने परमात्मा को पहचान लिया।
महावीर स्वामी कहते हैं - अप्पा सो परमप्पा अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है।
चर्चा आकाश की नहीं जमीन की करें, बात परमात्मा की नहीं आत्मा की करें, लेकिन हो रहा है इसके विपरीत। आदमी जिस जमीन पर पैदा होता है, बड़ा होता है, खड़ा होता है, उसकी चर्चा नहीं करता, आकाश की बातें करता है, आकाश को छूने के लिए अधिक उत्साहित होता है। अपनी आत्मा को जानता नहीं, परमात्मा को जानने का दम्भ रखता है। परमात्मा की प्रशंसा किए जा रहा है जबकि परमात्मा तो आकाश है और आत्मा ज़मीन। चर्चा आकाश की नहीं ज़मीन की होनी चाहिए क्योंकि आत्मा को समझ कर ही उसे परमात्मा बना सकते हैं। आत्मा को जाने बिना परमात्म-पद को पाना असंभव है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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