पहले श्रेष्ठता से हम स्वयं जुड़ें
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
पहले श्रेष्ठता से हम स्वयं जुड़ें
महानुभावों! जो अमृतधरा मन के अंदर से झरकर संसार की रुक्षता को दूर करती थी, वह आज कहीं दिखाई नहीं देती। व्यक्ति, परिवार, संघ, समाज, देश और सृष्टि के बीच सारे संबंध बिखराव की दिशा में जा रहे हैं। निरंतर तेजी से बढ़ती हुई विपरीतता एवं विषमता जीवन को जीवन के ढंग से नहीं जीने देती। आज हम जीने की निर्दोष जीवंत शैली को भूल गए हैं। विविध दोषों के विष को दूर करने के लिए या कराने के लिए उपदेश के नाम पर बहुत सारा शोर हमारे कानों में पड़ता है। पर मन की सतह तक वह उपदेश पहुँच ही नहीं पाता। वह तो ऊपरी सतह पर ही खो जाता है।
यह विचार कई बार मन में कौंधता है कि संघ, संगठन, समाज-सुधार, संस्कृति-सुरक्षा, आध्यात्मिक अभ्युदय आदि के बारे में लेखन, प्रवचन, सम्मेलन, अधिवेशन, चर्चा एवं गोष्ठियों व प्रतियोगिताओं में बहुत कुछ कहे-सुने जाने के बावजूद ये सारे प्रयत्न चारों ओर व्याप्त विसंगतियों को दूर करने में सहायक सिद्ध क्यों नहीं होते?
आखिर इसका क्या कारण है?
हर नारा खोखला और हर उपदेश का स्वर बेमानी सा क्यों लगता है? मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जो बात अंतर के आधार पर अनुभव की गहराई से जन्म नहीं लेती, वह शीघ्र ही बंद दीवारों से टकरा कर खो जाती है।
मुनि श्री ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को सृष्टि को जगाने का संकल्प करने से पहले स्वयं को जगाने का संकल्प करना चाहिए, तभी जागृति का शंखनाद जन-जन तक पहुँचेगा। यदि मनुष्य समष्टि में परिवर्तन लाना चाहता है तो सबसे पहले उसे स्वयं को बदलना होगा। उसे उपलब्धि की ऊँचाइयों तक पहुँचने से पहले अपने तुच्छ अहंकार का परित्याग करना होगा। वातावरण में श्रेष्ठताओं की स्थापना एवं प्रसार तभी संभव है जब उन श्रेष्ठताओं को व्यक्ति पहले स्वयं अपने जीवन में प्रामाणिकता से जीए। व्यक्ति के अंतर्मन में फैले अंधकार को उसका स्वतः प्रज्ज्वलित दीप ही मिटा सकता है। एक बुझा हुआ दीप कभी उस अंधकार को नहीं चीर सकता।
आज सुधार के नाम पर अनेक झंडे गली-मुहल्लों में लहराते हुए दिखाई देते हैं। सुधार का दंभ भरने वाले व्यक्ति दुनिया को चौंकाने वाली आदर्शों की कुछ बातें कह कर अल्प अवधि के लिए प्रभावित तो अवश्य कर लेते हैं पर स्थाई रूप से अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते। भगवान महावीर दीक्षित होने के बाद लगातार साढ़े बारह वर्ष तक निरंतर मौन रहे। जब तक उन्होंने अंतर से अपने आपको पूर्णतया जगाकर स्वयं को आलोक मंडित नहीं कर लिया, तब तक दुनिया को जगाने के लिए एक शब्द भी प्रकट नहीं किया। जागा हुआ ही सोए हुए को जगा सकता है। जो स्वयं ही सुषुप्त है वह दूसरे को कैसे जगा पाएगा? सुधारक के कथन का प्रभाव तभी उत्पन्न होता है जब बात कंठ से नहीं, आचरण से उत्पन्न होती है। प्रसिद्ध कहावत है -
‘मन जीते जग जीत’
अर्थात् दुनिया को जीतना चाहते हो तो पहले मन को जीतो। मन को परखो। वहाँ राग-द्वेष की धुंध छाई हुई है, उसे मिटाओ। स्वच्छ मन से ही हम स्वस्थ चिंतन कर सकते हैं। एक कवि का कथन है -
अरे सुधारक जगत के, मत कर चिंता यार।
तेरा मन ही जगत है, पहले उसे सुधार।।
एक बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र है -
‘अप्प दीपो भव’
अर्थात् अपने दीपक स्वयं बनो। दूसरों को उजाला देने से पूर्व स्वयं को आलोक मंडित बनना आवश्यक है।
मुनि श्री ने बचपन में सुनी एक कहानी को दोहराते हुए कहा कि एक बच्चे को गुड़ खाने की बहुत आदत थी। उसकी माँ उससे बहुत परेशान थी। वह बच्चे को कान से पकड़ कर उसके गुरु के पास ले गई और बोली - महाराज! इसे कहो कि यह गुड़ न खाए। गुरु ने एक पल के लिए सोचा और कहा कि सात दिन के बाद आना। सात दिन बाद वह पुनः गुरु के पास आई। गुरु ने प्यार से बच्चे को कहा कि वत्स! गुड़ खाना छोड़ दो। बालक ने गुड़ खाना छोड़ दिया। माँ ने गुरु से प्रश्न किया कि आपने यह बात सात दिन पहले क्यों नहीं कही? गुरु ने उत्तर दिया कि तब मैं भी गुड़ खाता था। गुरु को अपने शिष्य से वही बात कहने का अधिकार है जिसका वह स्वयं पालन करता हो। आज सारी दुनिया गुड़ खाने के रोग से ग्रस्त है। हर गली, गाँव, नगर में धर्मगुरु उपदेश दे रहे हैं कि गुड़ मत खाओ, लेकिन किसी पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। कोई भी गुड़ खाना नहीं छोड़ता। कारण कि सभी गुरु गुड़ से मक्खी की तरह चिपके हुए हैं।
मैं यह महसूस करता हूँ कि यदि मनुष्य सृष्टि को बदलना चाहता है तो सबसे पहले अपने आप को बदले। यदि सभी अपने आप को बदलने के लिए संकल्प करके उसे व्यावहारिक दृष्टि से चरितार्थ करने का प्रयास करेंगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब समय के चेहरे पर पड़ा काला आँचल, काला पर्दा हट जाएगा और एक नई सुबह मुस्कुराएगी। किसी ने कहा भी है -
व्यक्ति में परिवर्तन हो तो, युग परिवर्तन हो सकता है।
मानव यदि जाग जाए तो, पाप कालिमा धो सकता है।।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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