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Showing posts from September, 2020

आत्मा ही सत्य है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज आत्मा ही सत्य है हाँ, हमारी आत्मा ही सत्य है, शाश्वत् है।  यह इस जन्म से पहले भी थी, मृत्यु के बाद भी रहेगी। यह संसारी अवस्था में भी हमारे साथ रहेगी और मुक्ति पाने के बाद भी। इसलिए सबसे पहले तो सत्य का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। अभी तक हम झूठ को ही जीवन मान कर अपना जीवन जी रहे हैं। इसका मतलब है कि हम मोहनिद्रा में लीन हैं।  ‘मोह नींद के जोर, जगवासी घूमे सदा।’ मान लो हम नींद में सो रहे हैं। सपना देख रहे हैं कि हमारा आलीशान महल है, धन-संपत्ति है, नौकर, चाकर, पत्नी, बच्चे आगे-पीछे घूम रहे हैं। तभी हमने देखा कि महल को आग लग गई और सब कुछ समाप्त हो गया। हम रोने लगे और सचमुच ही आँखों से आँसू निकलने लगे। किसी ने हमें जगाया तो पता चला कि वहाँ तो कुछ भी नहीं था। अरे! यह तो सपना था, वह सब झूठ था। इसलिए सत्य का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। सत्य का ज्ञान होते ही दुःख, द्वन्द्व, दुविधा सब समाप्त हो गए।   महल, नौकर, चाकर, आग की लपटें आदि सब अदृश्य हो गए।  पर मुश्किल यह है कि आप असत्य पर ही श्रद्धा करते हो। यह मेरा घोड़ा है और यह मेरी गाड़ी है, लेकिन जा...

जीवन का लक्ष्य

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जीवन का लक्ष्य जन्म मिला, जीवन मिला तो इस जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित करो कि हम कैसे जीएं? हमारा उद्देश्य क्या है?   हम इस दुनिया में क्या करने आए हैं? यह जिज्ञासा हरेक के मन में होनी चाहिए। क्या मात्र भोग-सामग्री को एकत्रित करने और उसका उपभोग करने के लिए ही हम पैदा हुए हैं? जीवन भर खाया-पीया, चारों कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) का पोषण करके द्रव्य कमाया और उसका भोग करके सो गए। अगले दिन फिर इन्हीं क्रियाओं में लग गए। एक दिन इसी प्रकार जीवन का अन्त हो जाएगा और आप चिरनिद्रा में सो जाओगे। क्या इसे ही व्यवस्थित जीवन कहते हैं? एक बच्चा भी 9 वीं- 10 वीं कक्षा में अपने जीवन का लक्ष्य बनाता है और फिर उसे प्राप्त करने में जुट जाता है। क्या लक्ष्य बनाते ही उसे लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है? नहीं न! डॉक्टर बनना है तो उसे 10 साल तक कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, रोज़ 15 - 18 घंटे तक पढ़ाई करने के बाद ही वह अपने लक्ष्य को पा सकेगा।  जब मैं 14 वर्ष का था तब मैंने अपने गुरुवर के मुख से ये दो लाइनें सुनी थी - नई खूबी, नई रंगत, नए अरमान पैदा कर, इस खाक के पुतले में...

नमस्कार में चमत्कार है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज नमस्कार में चमत्कार है जो व्यक्ति अपने हृदय की गहराइयों से पंच परमेष्ठी की भक्ति करता है, वह स्वयं परमात्म-पद की प्राप्ति कर सकता है। णमोकार मंत्र में पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता है और इसका स्मरण अनादिकाल से किया जाता रहा है।  पंचमकाल में णमोकार मंत्र को सर्व प्रथम आचार्य भूतबलि व आचार्य पुष्पदंत ने षट्खण्डागम ग्रंथ में लिपिबद्ध किया है। इस सर्वशक्तिमान मंत्र से 84 लाख मंत्रों की उत्पत्ति हुई है। जैन धर्म में चमत्कार को नमस्कार नहीं किया जाता। यहाँ नमस्कार में चमत्कार दिखाई देता है। जो जीव एक बार णमोकार मंत्र का जाप कर लेता है, उसके सर्वरोग नष्ट हो जाते हैं। आस्था पूर्वक श्रद्धा से की गई भगवान की भक्ति आपके सभी कष्टों का निवारण कर देती है। लोग कहते हैं कि उस भगवान में चमत्कार है या उस क्षेत्र में अलौकिक शक्ति है, पर ऐसा नहीं है। चमत्कार और अलौकिक शक्ति तो आपकी भक्ति में है जो वहाँ जाने पर प्रगट हो जाती है।  उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा है कि एक किसान खेत में बीज बोता है तो उसका उद्देश्य अच्छी फसल पाने का होता है। वह बीज की सुरक्षा करता ह...

जीवन में छलनी नहीं, सूपा बनो

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जीवन में छलनी नहीं, सूपा बनो दुनिया में दो प्रकार के दृष्टिकोण रखने वाले लोग होते हैं। एक होते हैं - गुणग्राही और दूसरे होते हैं - छिद्रान्वेषी। गुणग्राही व्यक्ति की दृष्टि हमेशा दूसरे के गुणों पर रहती है और छिद्रान्वेषी को केवल दूसरों के दोष ही दिखाई देते हैं, गुण नहीं। एक कोयल का मधुर संगीत सुन कर गुणग्राही व्यक्ति कहेगा कि देखो! इसकी आवाज़ कितनी कर्णप्रिय है। मन करता है कि सुनते ही रहो। दूसरी ओर छिद्रान्वेषी कहेगा कि ऊँह... कितनी बदसूरत है यह कोयल! कितना काला रंग लिए हुए है।  यह दृष्टि का नहीं दृष्टिकोण का फर्क है। गुणग्राही को किसी के दोष दिखाई नहीं देते और छिद्रान्वेषी को केवल दोष ही दोष दिखाई देते हैं। किसी की अच्छाइयों को देखने वाली दृष्टि है ही नहीं उसके पास। एक भले आदमी को किसी में बुराई नज़र ही नहीं आती। कबीरदास जी कहते हैं - “बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।” एक अच्छा आदमी ही स्वयं को बुरा कह सकता है कि दुनिया में मुझे अपने से बुरा कोई नहीं मिला। जिस व्यक्ति को दूसरे की निंदा, आलोचना करने की औ...

पुण्य का सदुपयोग करें

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज पुण्य का सदुपयोग करें जब आप दुनिया में किसी को सुख-समृद्धि से युक्त देखते हैं तो मन में अनायास ही यह भाव आता है कि यह सब उसके द्वारा किए गए किसी पुण्य का फल है और जब किसी को दुःखी या दीन-दरिद्र अवस्था में देखते हैं तो लगता है कि बेचारा न जाने कौन-से जन्म के पापों का फल भोग रहा है। उससे यही सिद्ध होता है कि पाप का परिणाम दुःख है और पुण्य का फल सुख है। कहा जाता है कि “पुण्य फला अरिहन्ता।” इसका अर्थ है कि पुण्य के वृक्ष पर ही अरिहन्त अवस्था के परम सुख के फल लगते हैं। पुण्य के परिणाम होते हैं, तभी भव्य जीव के मन में मन्दिर जाने के भाव बनते हैं; जिनवाणी सुनने और उससे कुछ ग्रहण करने का विचार मन में आता है। अभव्य जीव तो धर्म के नाम से ही दूर भागने लगता है। पाप के विचार लेकर न तो कोई मन्दिर में प्रवेश कर सकता और न ही पूजा-अर्चना के भाव बना सकता। पूजा-अर्चना के भाव भी पुण्य से ही बनते हैं और उससे पुण्य में वृद्धि होती है। मान लो आप बैंक से एक लाख रुपए ब्याज पर उधार लेते हैं तो एक तय सीमा के भीतर आपको मूलधन के साथ-साथ ब्याज भी चुकाना होगा। इसी प्रकार हमें अपने प...

सबके दिन एक जैसे नहीं रहते

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज सबके दिन एक जैसे नहीं रहते एक ग़रीब बालक रोज़ सेठ जी की दुकान के आगे से गुज़रता था। उसे काम की तलाश थी, पर बच्चा समझ कर कोई उसे काम पर नहीं रखता था। वह धन से ग़रीब अवश्य था, मन से नहीं। उसमें कर्त्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के दो विशेष गुण थे जो उसे मन से धनवान बनाए हुए थे। कहते हैं कि योगी बनो तो ज्ञान की पूंजी अपने पास रखो और गृहस्थी बनो तो धन-सम्पत्ति के साथ-साथ दयाभाव की पूंजी से मालामाल रहो। तभी उस धन की सार्थकता होगी। जब वह बालक सेठजी की ओर देखता तो सेठजी के मन में उसकी सहायता करने का भाव उमड़ने लगता। एक दिन उन्होंने बालक से पूछ ही लिया कि ‘बच्चे! तुम रोज़ कहाँ जाते हो?’ बालक ने अपने मन की व्यथा कह सुनाई कि ‘सेठजी! मैं कहीं जा नहीं रहा हूँ बल्कि जो चला गया है उसका अभाव महसूस कर रहा हूँ। मेरे पिता की मृत्यु हो गई है और पेट भरने के लिए मुझे काम की तलाश है। यदि आप मुझे अपने यहाँ काम दे दें तो मैं कोई वेतन नहीं माँगूगा। बस! मुझे दोनों समय खाने के लिए भोजन दे देना।’ वह बालक धन से बेशक ग़रीब था, पर विवेक से नहीं। दुनिया में यह आवश्यक नहीं कि जिसके पास धन की ...

जीवन में मित्रता करो तो भगवान से

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जीवन में मित्रता करो तो भगवान से जीवन को अपने अन्तिम मुकाम तक पहुँचाने के लिए केवल अच्छे परिवार व सहयोगी समाज की ही आवश्यकता नहीं होती, अपितु एक सच्चे मित्र का साथ होना भी अति आवश्यक है और भगवान से अच्छा, सच्चा और सहयोगी मित्र कोई नहीं हो सकता। आपकी अस्थियाँ बिखरने से पहले भगवान के प्रति अपनी आस्था के दीपक को जगा लो। आपकी अर्थी उठने से पहले जीवन के अर्थ को समझ लो। आप रोज़ न जाने कितने लोगों की अन्तिम यात्रा में शामिल होते हो। वे चार कंधों के सहारे श्मशान की ओर अपनी यात्रा करते हुए दिखाई देते हैं और सभी जानते हैं कि इस दुनिया में यह उनकी अन्तिम यात्रा है। इसके बाद वे दुनिया से ऐसे ही अदृश्य हो जाएंगे, जैसे पानी की बूंद सूर्य के ताप से भाप बनकर उड़ जाती है और अनन्त आकाश में विलीन हो जाती है। “जीवन है पानी की बूंद, कब मिट जाए रे। होनी अनहोनी, कब क्या घट जाए रे........।” सब कुछ देखते हुए भी हम स्वयं को भ्रमित किए रहते हैं कि वह जा रहा है, मैं तो कभी नहीं जाऊँगा। लेकिन याद रखो कि आपका विवाह हो या न हो, घोड़ी पर बैठो या न बैठो, डोली सजे या न सजे; पर एक-न-एक ...

सत्संगति से जीवन बनता है स्वर्ग

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज सत्संगति से जीवन बनता है स्वर्ग सत्संगति एक ऐसा पारस पत्थर है जो नर को नारायण और पापी को परमात्मा बना सकता है। बस! शर्त यह है कि नर में नारायण बनने की और पापी में परमात्मा बनने की पात्रता हो। पारस पत्थर भी उस लोहे को स्वर्ण में परिवर्तित करता है जो जंग से रहित हो। एक आदमी जैसी संगति करता है, उस पर संगति का प्रभाव पड़ने लगता है और वह भी धीरे-धीरे उसी रूप में ढल जाता है। स्वाति नक्षत्र में आसमान से गिरी पानी की बूंद में यह विशेषता होती है कि उसे जिसका संयोग मिलता है, उसका उसी रूप में परिवर्तन हो जाता है। यदि वह बूंद गन्ने के ऊपर गिरती है तो उसमें भी गन्ने जैसी मिठास उत्पन्न हो जाती है। इसके विपरीत यदि वही बूंद साँप के मुख में जाकर गिरती है तो विष का रूप धारण कर लेती है। एक ओर जहाँ गन्ने की मिठास सबको प्रसन्न करती है, वहीं दूसरी ओर सर्प का विष अच्छे-भले हंसते-खेलते प्राणी को मौत के मुंह में सुला देता है।  स्वाति नक्षत्र में गिरी पानी की बूंद में तो कोई अन्तर नहीं था, फिर उसके गुणों में यह अन्तर आया कहाँ से?   हाँ, आपने ठीक कहा। यह अन्तर आया संगति क...

जीवन को नर्क नहीं, स्वर्ग बनाओ

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जीवन को नर्क नहीं, स्वर्ग बनाओ क्या आप मरने के बाद स्वर्ग जाना चाहते हैं? हाँ! क्या आप जीते-जी स्वर्ग की अनुभूति करना चाहते हैं? हाँ! जी हाँ!! तो हम उसका उपाय आपको बताते हैं। आप अपने जीवन को नर्क नहीं, स्वर्ग बनाओ। आप स्वयं अपने घर को स्वर्ग में बदल सकते हैं। हम दिन-भर में अनेक लोगों से मिलते हैं। किसी को देखकर मन में मित्रता का भाव आता है और किसी को देखकर मन में दबा हुआ पुराना वैर-विरोध जागृत हो जाता है। यदि हम अपने जीवन को स्वर्ग बनाना चाहते हैं तो इस वैर-विरोध की प्रवृत्ति को समाप्त कर दो। क्या किसी से शत्रुता का भाव करने से शत्रुता समाप्त हो जाएगी? क्या ऐसे भाव का परिणाम शांति और सुख देने वाला होगा? आप शांतचित्त होकर बैठो और विचार करो कि आज जिसे हम शत्रु समझ रहे हैं, हो सकता है कि हमारे व्यवहार से प्रभावित होकर कल वह हमसे मित्रवत् व्यवहार करने लगे। दुनिया में किसी से वैर-विरोध रख कर हमें क्या लाभ होगा? हाँ! हानि होने की संभावना तो शत-प्रतिशत है। यह प्रतिशोध की भावना हमारे आत्म-शोध में बाधक बन जाएगी और हम स्वर्ग-सुख की अनुभूति से वंचित रह जाएंगे। फिर ...

जीवन में धैर्य का महत्व

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जीवन में धैर्य का महत्व यदि हम अपने आस-पास के वातावरण को देखते हैं तो हमें सबसे पहले धरती दिखाई देती है जो सबसे अधिक परोपकार करने वाली होती है। धरती से ही हमें खाने को रोटी, पहनने के लिए वस्त्र और रहने के लिए मकान मिलता है। इतना सब कुछ देने के बाद भी उसमें लेशमात्र अभिमान नहीं होता।  पानी भी बिना किसी भेदभाव के सबकी समान रूप से प्यास बुझाता है। उसमें हर जाति के, हर मजहब के मनुष्यों और यहाँ तक कि हर जीव-जंतु को तृप्त करने का गुण विद्यमान है। वह छूत-अछूत का विचार कभी मन में नहीं लाता। इसी प्रकार धर्म-ग्रंथों में प्रत्येक जीव के कल्याण का उपदेश दिया गया है जो सत्य की कसौटी पर कसा हुआ है। मनुष्य धरती के समान परोपकारी, जल के समान तृप्तिदायक और धर्म के समान कल्याणकारी हो सकता है लेकिन कमी है तो सिर्फ धैर्य की।   हमारे दुःख का सबसे बड़ा कारण यही है कि हम प्राप्त को पर्याप्त नहीं समझते। अपने कर्मों के अनुसार हम अपनी पात्रता व योग्यता से जो धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं, उनका लाभ उठाने के स्थान पर उन में वृद्धि करने में ही अपना सारा उपयोग लगा...