जीवन में मित्रता करो तो भगवान से

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

जीवन में मित्रता करो तो भगवान से

जीवन को अपने अन्तिम मुकाम तक पहुँचाने के लिए केवल अच्छे परिवार व सहयोगी समाज की ही आवश्यकता नहीं होती, अपितु एक सच्चे मित्र का साथ होना भी अति आवश्यक है और भगवान से अच्छा, सच्चा और सहयोगी मित्र कोई नहीं हो सकता।

आपकी अस्थियाँ बिखरने से पहले भगवान के प्रति अपनी आस्था के दीपक को जगा लो। आपकी अर्थी उठने से पहले जीवन के अर्थ को समझ लो। आप रोज़ न जाने कितने लोगों की अन्तिम यात्रा में शामिल होते हो। वे चार कंधों के सहारे श्मशान की ओर अपनी यात्रा करते हुए दिखाई देते हैं और सभी जानते हैं कि इस दुनिया में यह उनकी अन्तिम यात्रा है। इसके बाद वे दुनिया से ऐसे ही अदृश्य हो जाएंगे, जैसे पानी की बूंद सूर्य के ताप से भाप बनकर उड़ जाती है और अनन्त आकाश में विलीन हो जाती है।

“जीवन है पानी की बूंद, कब मिट जाए रे।

होनी अनहोनी, कब क्या घट जाए रे........।”

सब कुछ देखते हुए भी हम स्वयं को भ्रमित किए रहते हैं कि वह जा रहा है, मैं तो कभी नहीं जाऊँगा। लेकिन याद रखो कि आपका विवाह हो या न हो, घोड़ी पर बैठो या न बैठो, डोली सजे या न सजे; पर एक-न-एक दिन अर्थी तो अवश्य सजेगी।

“सज धज कर जिस दिन मौत की शहज़ादी आएगी, 

न सोना काम आएगा, न चांदी आएगी।”

अर्थी उठने से पहले उठो और जाग जाओ। जीवन समाप्त होने से पहले जीवन-शैली के प्रति अपनी समझ को जगा लो।

जैन-दर्शन केवल जीने की ही नहीं, मरने की कला भी सिखाता है। उसका नाम है - समाधि मरण। जीने की कला तो सभी सीख सकते हैं, पर मरण की सार्थकता केवल समाधिपूर्वक मरण करने में ही है। जो मरने से भयभीत नहीं होता, वही निडरतापूर्वक जीवन जी सकता है।

एक छोटे-से बच्चे ने स्कूल से घर आते हुए रास्ते में पहली बार किसी की शव-यात्रा देखी। वह समझ ही नहीं पाया कि यह क्या है? उसने देखा कि चार लोग अपने कंधे पर कुछ उठाए हुए चल रहे हैं। उस पर सफेद कपड़े के सिवाय कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। बहुत से लोग उस के पीछे-पीछे नज़रें झुकाए हुए चल रहे थे। बच्चा आश्चर्यचकित होकर यह सब देखता हुआ अपने घर पहुँचा।

घर आकर उसने अपने पिता से पूछा कि आज मैंने रास्ते में ऐसा-ऐसा दृश्य देखा है, वह क्या था? उसने अपने पिता को वह सारा हाल बता दिया। पिता ने बताया कि ‘उस सफेद कपड़े के नीचे उस आदमी को लिटा कर ले जा रहे थे, जो अब इस दुनिया से जा चुका था। अब वह न चल सकता है, न बोल सकता है और न ही सुन सकता है। उसी की अन्तिम यात्रा जा रही थी श्मशानघाट की ओर।’

‘पिताजी! उसमें जो लोग चल रहे थे, वे कुछ बोलते हुए जा रहे थे जो मेरी समझ में तो आया नहीं।’

‘हाँ बेटा! वे बोल रहे थे - “राम नाम सत्य है, अरिहंत नाम सत्य है।” इस समय ऐसा ही बोला जाता है।’

‘पर पिताजी! आप तो कह रहे हैं कि वह अब न बोल सकता है और न ही सुन सकता है। फिर उसे कैसे पता चलेगा कि इस दुनिया में भगवान का नाम ही सत्य है, बाकी सब झूठ है।’

‘हाँ बेटा! यही तो विडम्बना है। दुनिया की यही उल्टी रीत है। जब तक वह सुन सकता था, तब तो उसे सुनाया नहीं। अब वह सुन नहीं सकता तो उसे बताने का कोई लाभ नहीं है कि राम का नाम ही अंत तक हमारा साथ निभा सकता है, यह दुनिया वाले नहीं।

इसलिए अपने जीवन का कोई भरोसा नहीं है। अब भी समय है। स्वयं को जागृत करो और भगवान के नाम की सत्यता को पहचानो।

अपनी ही अर्थी के आगे-आगे मैं गाता चलूँ, 

सिद्ध नाम सत्य है, अरिहंत नाम सत्य है।

जिनको मेरे सुख-दुःखों से कुछ नहीं था वास्ता,

उनके ही कांधों पे मेरा कट रहा था रास्ता।

आँख जब मुंदी तो कोई शत्रु है न मित्र है,

सिद्ध नाम सत्य है, अरिहंत नाम सत्य है।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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