जीवन में धैर्य का महत्व
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
जीवन में धैर्य का महत्व
यदि हम अपने आस-पास के वातावरण को देखते हैं तो हमें सबसे पहले धरती दिखाई देती है जो सबसे अधिक परोपकार करने वाली होती है। धरती से ही हमें खाने को रोटी, पहनने के लिए वस्त्र और रहने के लिए मकान मिलता है। इतना सब कुछ देने के बाद भी उसमें लेशमात्र अभिमान नहीं होता।
पानी भी बिना किसी भेदभाव के सबकी समान रूप से प्यास बुझाता है। उसमें हर जाति के, हर मजहब के मनुष्यों और यहाँ तक कि हर जीव-जंतु को तृप्त करने का गुण विद्यमान है। वह छूत-अछूत का विचार कभी मन में नहीं लाता।
इसी प्रकार धर्म-ग्रंथों में प्रत्येक जीव के कल्याण का उपदेश दिया गया है जो सत्य की कसौटी पर कसा हुआ है।
मनुष्य धरती के समान परोपकारी, जल के समान तृप्तिदायक और धर्म के समान कल्याणकारी हो सकता है लेकिन कमी है तो सिर्फ धैर्य की।
हमारे दुःख का सबसे बड़ा कारण यही है कि हम प्राप्त को पर्याप्त नहीं समझते। अपने कर्मों के अनुसार हम अपनी पात्रता व योग्यता से जो धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं, उनका लाभ उठाने के स्थान पर उन में वृद्धि करने में ही अपना सारा उपयोग लगाए रखते हैं। यही ‘हाय-हाय’ हमारे महान दुःख का कारण बन जाती है।
जीवन में सुख-दुःख तो एक प्रकार से दिन-रात के समान आते और जाते रहते हैं। न सुख का प्रभात सदा रहने वाला है और न दुःख की काली रात। जीवन में अंधेरा दिखाई देने लगे तो प्रभात होने तक सब्र करो। आपके रोने-चिल्लाने से कष्ट का समय और अधिक लम्बा होता दिखाई देगा। कष्ट की अधीरता में लिया गया गलत निर्णय जीवन को नष्ट कर देगा।
भगवान भी हमें दुःख के समय ही याद आते हैं। सुख में भगवान का नाम ले लेते तो उससे मिलने वाला पुण्य दुःख को आने ही नहीं देता। कहा भी है -
दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।।
दुःख को स्वीकार करने के स्थान पर हम भगवान को दोष देने लगते हैं कि हे भगवान! यह आपने क्या कर दिया?
भगवान तो स्वयं ही सुख-दुःख से परे मोक्षधाम में विराजमान हैं। उन्हें किसी के सुख-दुःख से क्या प्रयोजन? हम स्वयं ही अपने इन्द्रिय-सुख में अपने को सुखी मान रहे हैं जबकि यह सुख नहीं, केवल सुखाभास है जो क्षण-भंगुर है। यह अपनी एक झलक दिखला कर अदृश्य हो जाएगा। यह सुख तलवार पर लगे शहद के समान है जो चाटते समय तो मीठा लगता है और जब उसी तलवार से जीभ कटती है तो पीड़ा के सिवाय कुछ नहीं दे सकती।
पाँचों इन्द्रियों के भोग पहले सुख देते हैं और बाद में दुःख का कारण बनते हैं लेकिन संयम-व्रत-नियम पहले दुःख देते हुए दिखाई देते हैं और बाद में शाश्वत सुख का कारण बनते हैं। संयम-व्रत-नियम लेने के बाद सबसे पहले हमारी धैर्य की परीक्षा होती है। यदि हम उसमें उत्तीर्ण हो गए तो सुख और शान्ति की प्राप्ति होगी।
क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसी कषाय हैं जो पहले भी दुःख देती हैं और इनका परिणाम भी दुःख का ही कारण बनता है। दया, करुणा, वात्सल्य आदि शुभ भावनाएं करने से वे पहले भी सुख देती हैं और बाद में भी सुख का निमित्त बनती हैं, पर यह सुख स्थाई नहीं होता।
यदि हम अपने जीवन को पावन बनाना चाहते हैं और शाश्वत सुख की ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं तो हमें हर परिस्थिति में धैर्य का आलम्बन लेना चाहिए।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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