आत्मा ही सत्य है

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

आत्मा ही सत्य है

हाँ, हमारी आत्मा ही सत्य है, शाश्वत् है। 

यह इस जन्म से पहले भी थी, मृत्यु के बाद भी रहेगी। यह संसारी अवस्था में भी हमारे साथ रहेगी और मुक्ति पाने के बाद भी।

इसलिए सबसे पहले तो सत्य का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। अभी तक हम झूठ को ही जीवन मान कर अपना जीवन जी रहे हैं। इसका मतलब है कि हम मोहनिद्रा में लीन हैं। 

‘मोह नींद के जोर, जगवासी घूमे सदा।’

मान लो हम नींद में सो रहे हैं। सपना देख रहे हैं कि हमारा आलीशान महल है, धन-संपत्ति है, नौकर, चाकर, पत्नी, बच्चे आगे-पीछे घूम रहे हैं। तभी हमने देखा कि महल को आग लग गई और सब कुछ समाप्त हो गया। हम रोने लगे और सचमुच ही आँखों से आँसू निकलने लगे।

किसी ने हमें जगाया तो पता चला कि वहाँ तो कुछ भी नहीं था। अरे! यह तो सपना था, वह सब झूठ था। इसलिए सत्य का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।

सत्य का ज्ञान होते ही दुःख, द्वन्द्व, दुविधा सब समाप्त हो गए। 

महल, नौकर, चाकर, आग की लपटें आदि सब अदृश्य हो गए। 

पर मुश्किल यह है कि आप असत्य पर ही श्रद्धा करते हो। यह मेरा घोड़ा है और यह मेरी गाड़ी है, लेकिन जानना चाहते हो सत्य। 

यहाँ तो कहानी ही उल्टी है। जब पहला मटका ही उल्टा रखा हो तो हम उसके ऊपर रखे जाने वाले सभी मटके भी उल्टे ही रखते चले जाते हैं।

हमें बीमारी में भी पहले डॉक्टर और दवाई याद आती है, फिर धन-परिजन याद आते हैं। भगवान तो सबसे बाद में तब याद आते हैं, जब डॉक्टर कह देते हैं कि इनको दवा की नहीं दुआ की ज़रूरत है। 

इसलिए सत्य को जानो और पहचानो।

उत्तम सत्य वही है जो मन, वचन और काया की एकता से बोला जाए। भावना, वाणी और व्यवहार का सत्य ही उत्तम सत्य है। सत्य बोलने में उतनी कठिनाई नहीं है जितनी कि झूठ को जिंदा रखने में है।

सत्य तो हर काल, हर क्षेत्र, हर भाव में अपरिवर्तित रहता है पर झूठ कदम-कदम पर बदलता रहता है।

कह देते हैं कि सत्य बोलें तो सबको कड़वा लगता है पर जो कड़वा है वह तो सत्य हो ही नहीं सकता। सत्य तो मिश्री के समान मीठा होता है।

जैसे बुखार के मरीज़ को मिश्री खिलाओ तो उसे कड़वी लगती है क्योंकि उसके मुंह का स्वाद ही कड़वा हो गया है, उसी तरह हमें भी माया-मोह का बुखार चढ़ा हुआ है, सत्य तो कड़वा लगेगा ही। तभी तो हमें आत्मा के हित की बातें कड़वी लगती हैं।

सत्य तो बोलो पर मीठा बोलो, प्रिय बोलो। अप्रिय सत्य भी न बोलो जो किसी के मन को ठेस पहुँचाए और प्रिय झूठ भी न बोलो जो किसी को गलत राह पर ले जाए और उसके लिए अहितकर साबित हो। 

एक मुनि जंगल में तपस्या कर रहे थे। पद्मासन लगाए अपनी आत्मा के ध्यान में बैठे थे कि अचानक उनका ध्यान टूटा और उन्होंने देखा कि एक हिरणी शिकारी के भय से भयभीत होकर भागती हुई उनके सामने से निकली।  

दोबारा वे खड़े हो कर तपस्या करने लगे। एक बार ध्यान टूटने पर फिर से ध्यान लगने में कुछ समय तो लगता ही है। तभी एक शिकारी वहाँ आया और पूछने लगा कि यहाँ से कोई हिरणी तो भागती हुई नहीं गई? 

‘हाँ’ कहते हैं तो हिरणी की जान जाती है और ‘नहीं’ कहते हैं तो असत्य भाषण का दोष लगता है।

मुनि ने कहा कि जब से मैं यहाँ खड़ा हुआ हूँ तब से तो कोई नहीं गया। यह असत्य भाषण नहीं कहलाएगा क्योंकि हिरणी तो तब गई थी जब वे बैठे थे।

हिरणी भी बच गई और सत्य व्रत का पालन भी हो गया।

अतः सत्य बोलो, प्रिय बोलो और हितकारी बोलो और यह अच्छी तरह जान लो कि आत्मा ही सत्य है और सब मिथ्या है।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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