जीवन में छलनी नहीं, सूपा बनो
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
जीवन में छलनी नहीं, सूपा बनो
दुनिया में दो प्रकार के दृष्टिकोण रखने वाले लोग होते हैं। एक होते हैं - गुणग्राही और दूसरे होते हैं - छिद्रान्वेषी।
गुणग्राही व्यक्ति की दृष्टि हमेशा दूसरे के गुणों पर रहती है और छिद्रान्वेषी को केवल दूसरों के दोष ही दिखाई देते हैं, गुण नहीं।
एक कोयल का मधुर संगीत सुन कर गुणग्राही व्यक्ति कहेगा कि देखो! इसकी आवाज़ कितनी कर्णप्रिय है। मन करता है कि सुनते ही रहो। दूसरी ओर छिद्रान्वेषी कहेगा कि ऊँह... कितनी बदसूरत है यह कोयल! कितना काला रंग लिए हुए है।
यह दृष्टि का नहीं दृष्टिकोण का फर्क है। गुणग्राही को किसी के दोष दिखाई नहीं देते और छिद्रान्वेषी को केवल दोष ही दोष दिखाई देते हैं। किसी की अच्छाइयों को देखने वाली दृष्टि है ही नहीं उसके पास।
एक भले आदमी को किसी में बुराई नज़र ही नहीं आती। कबीरदास जी कहते हैं -
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।”
एक अच्छा आदमी ही स्वयं को बुरा कह सकता है कि दुनिया में मुझे अपने से बुरा कोई नहीं मिला। जिस व्यक्ति को दूसरे की निंदा, आलोचना करने की और दोष खोजने की आदत पड़ गई है, वह दूसरे में हज़ार गुण होते हुए भी एक न एक दोष खोज ही लेता है। दूसरी ओर जिसकी गुणग्राही प्रकृति होती है, वह दूसरे में हज़ार दोष होते हुए भी एक न एक गुण प्राप्त कर ही लेता है।
कोई भी व्यक्ति पूर्णतया गुण-सम्पन्न नहीं हो सकता और पूर्णतया गुण-हीन नहीं हो सकता। आपने अपने घर में सूपा भी देखा होगा और छलनी भी। छलनी का काम है - सार वस्तु को अपने छिद्रों से नीचे गिरा देना और निस्सार कचरे को अपने पास रख लेना। जबकि सूपा कचरे को उड़ाकर बाहर फेंक देता है और सार वस्तु यानि ग्रहण करने योग्य अनाज को अपने पास रख लेता है।
हमारे लिए छलनी और सूपा दोनों उपदेशक का काम करते हैं। सूपा गुण-ग्रहण का संदेश देता है और छलनी कहती है कि कभी छिद्रान्वेषी नहीं बनना, वरना मेरी तरह सारी उम्र कचरा ही इकट्ठा करते रह जाओगे। कभी सार की पहचान नहीं कर पाओगे और सारा जीवन कोरे कागज़ की तरह कोरा ही रह जाएगा।
अतः अपना जीवन अवगुणों के कचरे से दुर्गन्धमय नहीं, गुणों के रत्नों से प्रकाशवान बनाओ।
आओ सभी मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें और गुणों की समृद्धि के लिए गुणग्रहण की भावना भाएं।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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