सबके दिन एक जैसे नहीं रहते

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

सबके दिन एक जैसे नहीं रहते

एक ग़रीब बालक रोज़ सेठ जी की दुकान के आगे से गुज़रता था। उसे काम की तलाश थी, पर बच्चा समझ कर कोई उसे काम पर नहीं रखता था। वह धन से ग़रीब अवश्य था, मन से नहीं। उसमें कर्त्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के दो विशेष गुण थे जो उसे मन से धनवान बनाए हुए थे।

कहते हैं कि योगी बनो तो ज्ञान की पूंजी अपने पास रखो और गृहस्थी बनो तो धन-सम्पत्ति के साथ-साथ दयाभाव की पूंजी से मालामाल रहो। तभी उस धन की सार्थकता होगी।

जब वह बालक सेठजी की ओर देखता तो सेठजी के मन में उसकी सहायता करने का भाव उमड़ने लगता। एक दिन उन्होंने बालक से पूछ ही लिया कि ‘बच्चे! तुम रोज़ कहाँ जाते हो?’ बालक ने अपने मन की व्यथा कह सुनाई कि ‘सेठजी! मैं कहीं जा नहीं रहा हूँ बल्कि जो चला गया है उसका अभाव महसूस कर रहा हूँ। मेरे पिता की मृत्यु हो गई है और पेट भरने के लिए मुझे काम की तलाश है। यदि आप मुझे अपने यहाँ काम दे दें तो मैं कोई वेतन नहीं माँगूगा। बस! मुझे दोनों समय खाने के लिए भोजन दे देना।’

वह बालक धन से बेशक ग़रीब था, पर विवेक से नहीं। दुनिया में यह आवश्यक नहीं कि जिसके पास धन की कमी हो, वह बुद्धि से भी ग़रीब ही होगा। वास्तव में धनहीन होना इतना खतरनाक नहीं है, जितना बुद्धिहीन होना। यदि वह ईमानदार न होता तो धन कमाने के लिए ग़लत रास्ते पर भी जा सकता था। बिना मेहनत किए, चोरी करके भी अपना पेट भर सकता था। पर उसने निर्धन अवस्था में भी अपने नैतिक मूल्यों को नहीं छोड़ा। सेठजी को उस पर दया आ गई। उसे दुकान में झाड़ू लगाने का काम दे दिया। धीरे-धीरे वह बालक सेठजी का कृपा-पात्र बन गया और सेठजी भी उससे पुत्रवत् स्नेह करने लगे। यह उसके गुणों का ही प्रतिफल था। उसे सेठजी में ही अपने पिता के दर्शन होने लगे।

सेठ ने जान लिया था कि सबके दिन एक जैसे नहीं रहते। कल तक यह बालक अपने पिता के कंधे पर चढ़कर मौज मनाता था और आज भाग्य ने इसे फर्श पर झाड़ू लगाने के लिए विवश कर दिया, वरना कौन इतना निकृष्ट काम करना चाहता है। यह विश्वास रखो कि पहले पिच्छी से झाड़ कर निकृष्ट जीवों की रक्षा कर ली होती तो उनका घात करने के पाप से बच जाते और उनकी बद्दुआ अभिशाप बन कर हमें फर्श पर झाड़ू लगाने के लिए विवश नहीं करती। पिच्छी लेकर जीवों को बचाने का आनन्द वही जान सकता है, जिसने हाथ में पिच्छी ले ली है।

आज कितने लोग हैं जो कागज़ों की डिग्रीयां हाथ में लिए घूम रहे हैं, पर जीवन-यापन के लिए धन नहीं कमा पा रहे हैं। दुनिया में सर्वत्र यही देखा जाता है कि पूछ उसी की होती है, जिसकी पूँछ लम्बी होती है अर्थात् धन के सामने तो ज्ञान को भी कोई नहीं पूछता। लेकिन अपने पास पुद्गल धन हो या न हो, ईमानदारी के धन को छोड़कर ग़लत रास्ते पर कभी नहीं जाना। नैतिक मूल्यों के धन से कभी ग़रीब न हो जाना। ये गुण ही तुम्हारे भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित करेंगे। भाग्य सुन्दर नहीं होगा तो चाहे कितना भी पुरुषार्थ कर लेना, तुम्हें वांछित फल प्राप्त होने वाला नहीं है।

करोड़ों के लोभ में आकर ऐसा कोई काम मत करना कि समाज में तुम्हारी इज्ज़त दो कौड़ी की भी न रह जाए। जब धन कमाने का अवसर आए तो पहले यह विचार करना कि इससे हमारा धर्म तो खंडित नहीं हो रहा। हमारे लिए धन महत्त्वपूर्ण है या धर्म? धन तो पुद्गल है जिसका स्वभाव ही पूर्ण और गलन का है। आज गया है तो कल किसी और स्वरूप में आ जाएगा, पर ईमानदारी ऐसा गुण है जो हर विपत्ति के समय हमारा साथ देगी।

सदा याद रखो कि सब के दिन सदा एक जैसे नहीं रहते।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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