पुण्य का सदुपयोग करें
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
पुण्य का सदुपयोग करें
जब आप दुनिया में किसी को सुख-समृद्धि से युक्त देखते हैं तो मन में अनायास ही यह भाव आता है कि यह सब उसके द्वारा किए गए किसी पुण्य का फल है और जब किसी को दुःखी या दीन-दरिद्र अवस्था में देखते हैं तो लगता है कि बेचारा न जाने कौन-से जन्म के पापों का फल भोग रहा है। उससे यही सिद्ध होता है कि पाप का परिणाम दुःख है और पुण्य का फल सुख है।
कहा जाता है कि “पुण्य फला अरिहन्ता।” इसका अर्थ है कि पुण्य के वृक्ष पर ही अरिहन्त अवस्था के परम सुख के फल लगते हैं।
पुण्य के परिणाम होते हैं, तभी भव्य जीव के मन में मन्दिर जाने के भाव बनते हैं; जिनवाणी सुनने और उससे कुछ ग्रहण करने का विचार मन में आता है। अभव्य जीव तो धर्म के नाम से ही दूर भागने लगता है। पाप के विचार लेकर न तो कोई मन्दिर में प्रवेश कर सकता और न ही पूजा-अर्चना के भाव बना सकता।
पूजा-अर्चना के भाव भी पुण्य से ही बनते हैं और उससे पुण्य में वृद्धि होती है। मान लो आप बैंक से एक लाख रुपए ब्याज पर उधार लेते हैं तो एक तय सीमा के भीतर आपको मूलधन के साथ-साथ ब्याज भी चुकाना होगा। इसी प्रकार हमें अपने पूर्व अर्जित पुण्य के बैंक से सुख-सुविधाएं, धन-सम्पत्ति आदि उधार में मिली हैं जिसका ब्याज हमें और अधिक पुण्य कमा कर उस बैंक को वापिस करना है।
पर हम क्या करते हैं? पुण्य से मिली सम्पत्ति को पाप-कार्य और मौज-मस्ती में लुटा देते हैं। अब हम पुण्य के बैंक को क्या लौटाएंगे? धीरे-धीरे हमारी सुख-सुविधाएं, धन-सम्पत्ति आदि समाप्त हो जाएंगी और हम दरिद्रता व दुःखों की गिरफ्त में आ जाएंगे। मूलधन खा-पी कर खत्म कर दिया, ब्याज चुकाने के लिए कुछ है नहीं; फिर हम भगवान को ही दोष देना आरम्भ कर देते हैं।
यह तो वही बात हुई कि रामलाल से उधार लिया था और श्यामलाल को दे आए अर्थात् पुण्य से मिला था, पाप को दे आए। धन की तीन अवस्थाएं होती हैं - दान, भोग और नाश। अपने धन का एक हिस्सा दान में लगाओ, एक हिस्से का भोग करो और एक हिस्सा विपत्तिकाल के लिए बचा कर रखो। कुछ व्यक्ति केवल संग्रह करने में विश्वास रखते हैं। वे न तो दान करते हैं और न भोग करते हैं तो उस धन का नाश अवश्यम्भावी है।
अतः अपने पुण्य का सदुपयोग करो और अधिक पुण्य का उपार्जन करो।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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