Posts

Showing posts from January, 2024

मन में न आने दें अनैतिक विचार

Image
मन में न आने दें अनैतिक विचार (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) दूसरों के पाप कर्म देखकर पापी बनना आसान है, मगर पुण्य आत्मा के पुण्य कार्य को देखकर पुण्यात्मा बनना अति कठिन है। पानी ढलान की ओर सहजता से बह जाता है, मगर पानी को ऊपर चढ़ाने के लिए यंत्र की आवश्यकता पड़ती है, उसके लिए कठिन श्रम करना पड़ता है। दूसरे को सुखी देखकर ईर्ष्या करना आसान है, लेकिन दुःखी को दुःखी देखकर दुःखी होना कठिन है। दुःख देने वाले पाप से बचने का एक ही उपाय है कि स्वयं को पाप विचार से दूर रखें। मन में कभी अनैतिक विचार न आने दें। सांसारिक जीव कल्पना तो श्रेष्ठ की करता है, पर कार्य निकृष्ट करता है। किसी की इज्जत आबरू को गिराने में पल भर भी देर नहीं करता। किसी के आंसुओं से विचलित नहीं होता। आदमी दूसरों के पापों को नकारता है, मगर स्वयं दिन भर उन ही पापों के प्रति आकर्षित रहता है। यह आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी है। धर्म के मामले में आदमी की प्रकृति बिल्कुल विपरीत है। किसी को लाखों का दान देते हुए देखकर भी उसकी धन के प्रति आसक्ति जरा भी कम नहीं होती। वह रेत में पानी खोजने की कोशिश करता रहता है। धनाभाव ...

माता-पिता से बड़ा जगत में कोई नहीं

Image
माता-पिता से बड़ा जगत में कोई नहीं (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) माता-पिता के बिना हमारे अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारे यहां सनातन धर्म में माता को पृथ्वी से बड़ा और पिता को आकाश से ऊँचा दर्जा दिया गया है। माता-पिता का स्थान ईश्वर से भी बड़ा है। किसी विद्वान ने कहा है कि पानी अपना संपूर्ण जीवन देकर वृक्ष को बड़ा करता है, इसलिए शायद पानी कभी भी वृक्ष की लकड़ी को डूबने नहीं देता। देखा जाए तो माता-पिता का भी यही सिद्धांत है। माता ने हमें जन्म दिया और पिता ने हमें जीवन दिया है। हम उनके उपकार को कभी नहीं भूल सकते। हमारे दुःख में वे दुःखी हो जाते हैं और सुख में आनंद का अनुभव करते हैं। माता-पिता जीवन की प्रत्येक समस्या से हमारी रक्षा करते हैं। हमारा भी दायित्व है कि उन्हें हम जीवन का सर्वोपरि सम्मान दें। संसार में माता-पिता साक्षात् ईश्वर हैं। जिस तरह ईश्वर कल्याणकारी होता है, वह हमारे दुःखों को दूर करता है, वैसे ही माता-पिता भी सदैव हमारे कल्याण की कामना में लगे रहते हैं। वे हमेशा अपने बच्चों को आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं। वे जो वचन बोलते हैं, वे हमारे लि...

व्यक्ति के पुजारी नहीं, आचरण के पुजारी बनो

Image
व्यक्ति के पुजारी नहीं, आचरण के पुजारी बनो (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) जो आदमी इंद्रियों को कछुए की भांति सिकोड़ लेता है और कर्मों से रहित होता है, वही परमात्मा होने का अधिकारी है। परमात्मा केवलज्ञानी, वीतरागी और हितोपदेशी होता है। वह बाहरी ज्ञान के बल पर नहीं, अंतरंग से प्रस्फुटित ज्ञान के माध्यम से संसार को दिव्य संदेश देता है। जो परमात्मा होकर मुख से कथन करता है और किसी व्यक्ति, संप्रदाय या मानव विशेष को ही उपदेश देता है, समष्टि के प्राणी को नहीं, उसके अंदर स्वार्थ होता है, परिचय बनाने की भावना होती है। जो परमात्मा होकर संपूर्ण शरीर से दिव्य ध्वनि के माध्यम से उपदेश देता है, वह समष्टि के लिए निर्दोष आत्महित का उपदेश देता है। परमात्मा संसार की सारी वस्तुएं देखते और जानते हुए भी पाप से लिप्त नहीं होता, लेकिन मनुष्य एक वस्तु को देखकर भी राग से लिप्त हो जाता है और व्यर्थ की कल्पना करके पापास्रव करता है। रागी जीव संसार का सृजन करता है, वीतरागी जीव स्वयं के संसार का विसर्जन करता है। परम वीतरागी के ज्ञान में संसार दर्पण के समान स्पष्ट झलकता है। जिस प्रकार दर्पण स...

उठो और आगे बढ़ो

Image
उठो और आगे बढ़ो (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) एक बौद्ध भिक्षुक भोजन बनाने के लिए जंगल से लकड़ियाँ चुन रहा था कि तभी उसने कुछ अनोखा देखा। उसने सोचा - कितना अजीब है यह दृश्य! उसने बिना पैरों की लोमड़ी को देखा और मन ही मन सोचा कि आखिर इस हालत में यह जिंदा कैसे है? उसे घोर आश्चर्य हुआ यह देखकर कि ऊपर से वह बिल्कुल स्वस्थ दिखाई देती थी। वह अपने ख्यालों में खोया हुआ था कि अचानक चारों तरफ अफरा-तफरी मचने लगी। जंगल का राजा शेर उसी तरफ आ रहा था। वह बौद्ध भिक्षुक भी तेजी दिखाते हुए एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया और वहीं से सब कुछ देखने लगा। शेर ने एक हिरण का शिकार किया था और उसे अपने जबड़े में दबाकर उस बिना पैरों वाली लोमड़ी की तरफ बढ़ रहा था। पर यह क्या! उसने लोमड़ी पर हमला नहीं किया बल्कि उसे भी खाने के लिए कुछ मांस के टुकड़े डाल दिए। यह तो घोर आश्चर्य है। शेर लोमड़ी को मारने की बजाय उसे भोजन दे रहा है - भिक्षुक बुदबुदाया। उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था, इसलिए वह अगले दिन फिर वहीं आया और छिपकर शेर का इंतजार करने लगा। आज भी वैसा ही हुआ। शेर ने अपने शिकार का कुछ हिस्सा लोमड़ी के सा...

पूर्वाग्रह की कालिमा

Image
पूर्वाग्रह की कालिमा (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) शाम का समय था। माँ ने अपने बेटे से कहा - बेटा! ज़रा यह दीपक को जला दे। बेटा दीपक जलाने गया। माचिस की पूरी कारी जला डाली लेकिन दीपक नहीं जला। माँ ने आवाज़ दी - बेटा! क्या कर रहा है? जल्दी से दीपक लेकर आ। माँ! दीपक तो जलता ही नहीं है। क्या? क्यों? क्या बात है? माँ ने बेटे के पास आकर देखा कि माचिस की सारी कारी जल चुकी है, लेकिन दीपक की बाती नहीं जल रही है। उसने दीपक की बाती को ध्यान से देखा और कहा - बेटा! बाती पुरानी है। इसके अग्र भाग पर, इसके मुख पर कालिमा लगी है। दीपक में तेल होते हुए भी यह इसी कारण नहीं जल रही है। पहले बाती के मुख से जला हुआ कालापन दूर कर। फिर बाती जलाना। बेटे ने बाती से पूर्व का कालापन दूर किया। तेल में बाती को डुबोया। जलती हुई कारी का स्पर्श करते ही वह बाती जल गई। बाती के मुख पर लगा हुआ पूर्व का कालापन अग्नि को ग्रहण करने में बाधक बना हुआ था। इसी प्रकार आपका पूर्वाग्रह भी सत्य को ग्रहण करने में बाधक है। आपके हृदय रूपी दीपक में तेल है लेकिन बुद्धि की बाती पर पूर्वाग्रह की कालिमा लगी है। आप संतो...

सूखी और गीली लकड़ी

Image
सूखी और गीली लकड़ी (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) जीवन में सदा गीली लकड़ी की तरह बनो, सूखी लकड़ी नहीं। यदि किसी सरोवर में पत्थर फेंकें, तो पानी में भंवर पैदा होता है और कुछ क्षण बाद वह पत्थर डूब जाता है। यदि सूखा पत्ता सरोवर में फेंकें तो वह तैर जाता है और उस सरोवर की शोभा बढ़ा देता है। यह दृश्य आँखों को बहुत अच्छा लगता है। इसी प्रकार पारिवारिक संबंधों के सरोवर में क्रोध और अहंकार का पत्थर डालें तो वह पानी को उद्वेलित करके डूब जाता है और पानी अर्थात् संबंधों को भी गंदा कर देता है। हमारे मुँह से निकलने वाले शब्द कटु वचन की तरंगें पैदा करते हैं और संबंध कषाय और घृणा पैदा करके डूब जाते हैं। ऐसे वचन संबंधों में खटास पैदा करते हैं। दिलों में दीवारें खड़ी करते हैं। कटु वचन दूध में पड़ी मक्खी का काम करते हैं। इससे पारिवारिक प्रेम निभते नहीं बल्कि टूटते हैं और बिखरते हैं। पानी का काम दूध नहीं कर सकता और दूध का काम पानी नहीं कर सकता। स्वर्ण का काम लोहा नहीं कर सकता और लोहे का काम स्वर्ण नहीं कर सकता। चंदन का काम कोयला नहीं कर सकता और कोयले का काम चंदन नहीं कर सकता। इत्र का का...

निमित्त उपादान

Image
निमित्त उपादान (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) एक सम्राट बहुत दुःखी था। उसकी एक भी संतान नहीं थी अर्थात् उसके वंश का कोई अंश नहीं था, इसलिए वह रंज में रहता था। उसकी रानी ने सलाह दी, वैसे ही जैसे समय-समय पर सब की पत्नियाँ सलाह देती हैं, उसने भी अपने पति से कहा कि नगर में मुनिराज पधारे हैं। चलो, उनके चरणों में अपनी व्यथा की कथा व्यक्त करेंगे। दोनों मुनिराज के चरणों में गए और उन्हें अपनी पीड़ा बताई। ‘अब मात्र आपकी कृपा ही शेष है। हम आपके पास काफी उम्मीद लेकर आये हैं।’ मुनिराज ने दुःखी आत्मा को करुणा का अमृत पिलाया। उनका प्रशस्त मार्गदर्शन किया और एक मंत्र का जाप करने के लिए दिया, लेकिन इतना और कह दिया कि तुम्हें वंश का अंश तो अवश्य मिलेगा लेकिन वह संत पैदा होगा और बड़ा होकर बहुत बड़ा संत बनेगा तथा बालक के जन्म लेते ही पिता को वैराग्य हो जाएगा। निमित्त की यही तो विशेषता है कि स्वयं कार्य संपन्न करा कर निकल जाता है और वहां से हट जाता है। रानी के गर्भ में वंश का अंश आया और संत के कथनानुसार सम्राट को उसी समय वैराग्य उत्पन्न हो गया। सम्राट दिगंबर मुनि बनकर वन की ओर चले गए।...

नास्तिक, नैतिक और धार्मिक

Image
नास्तिक, नैतिक और धार्मिक (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) नास्तिक कौन है? जिसका आचरण और अंत:करण दोनों मलिन और दुष्ट हैं, वह नास्तिक है। नैतिक आचरण वाला कौन है? जिसका आचरण सुंदर है, वह नैतिक है। धार्मिक कौन है? जिसका आचरण और अंतर दोनों पवित्र हैं, वह धार्मिक है। एक व्यक्ति नज़र आने में आस्तिक, करने में भौतिक और बनने पर धार्मिक कहलाता है। वर्तमान में जो थोड़ा बहुत अच्छा होता हुआ दिखाई दे रहा है, उसमें भौतिक आदमी का ही योगदान है। सभी सोचते हैं कि मुझे सुख चाहिए। यह तो समझ में आता है, पर दूसरों का सुख मुझसे देखा क्यों नहीं जाता? दूसरों को उनकी पूजा-भक्ति से मिली प्रशंसा मुझे अच्छी क्यों नहीं लगती? लोगों की यह मनोवृत्ति मुझे समझ में नहीं आती। दूसरों के दुःख में सहानुभूति दिखाने वाली आँखें दूसरों के सुख में प्रेम क्यों नहीं जताती? यह कैसी मैत्री है? ये कैसे संबंध हैं? क्या यह संबंधों की हत्या नहीं है? संसार में तीन प्रकार के लोग हैं। पहले नंबर पर है नास्तिक, जो स्वच्छन्द होकर केवल अपना हित चाहता है और दूसरे की हानि में ही प्रसन्न होता है। ऐसा व्यक्ति बेशर्म है जिसका किस...

लघुता में प्रभुता

Image
लघुता में प्रभुता (परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से) अहंकार के भार से मुक्त हुआ व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध होता है। अहंकार की दीवार हमें स्वयं के भीतर नहीं जाने देती। अहंकार के कारण विवाद है, विषाद है, वैमनस्यता है, सांप्रदायिकता है और संघर्ष है। जहाँ अहंकार है, वहाँ मिलन नहीं मात्र वियोग है, सुख नहीं, दुःख है। लेकिन व्यक्ति के सारे प्रयास अहंकार से आरंभ होते हैं, ‘मैं’ और ‘मेरा’ पर समाप्त होते हैं। यह अहंकार की भावना उस छिपकली की तरह है जो छत पर चिपक कर सोच रही है कि मेरी बदौलत ही यह छत टिकी हुई है। अहंकार की सोच मुर्गे की सोच की भांति होती है कि मैं जब तक बांग नहीं दूँगा, तब तक सवेरा नहीं होगा। अहंकार की भावना मनुष्य को मनुष्यत्व के गुणों से रिक्त रखती है। जब व्यक्ति का मैं-पना समाप्त हो जाता है तो अहंकार भी धराशायी हो जाता है। तब उसके लिए परमात्मा का द्वार स्वतः खुल जाता है। बीज भूमि के अन्दर जाकर अपने अस्तित्व को मिटाता है, तभी वह वृक्ष का रूप धारण कर पाता है। अहंकार को लेकर यदि व्यक्ति परमात्मा के द्वार पर जाता है तब उसे वह द्वार बंद पाता है लेकिन जो अहंकार...