लघुता में प्रभुता

लघुता में प्रभुता

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

अहंकार के भार से मुक्त हुआ व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध होता है। अहंकार की दीवार हमें स्वयं के भीतर नहीं जाने देती। अहंकार के कारण विवाद है, विषाद है, वैमनस्यता है, सांप्रदायिकता है और संघर्ष है। जहाँ अहंकार है, वहाँ मिलन नहीं मात्र वियोग है, सुख नहीं, दुःख है। लेकिन व्यक्ति के सारे प्रयास अहंकार से आरंभ होते हैं, ‘मैं’ और ‘मेरा’ पर समाप्त होते हैं। यह अहंकार की भावना उस छिपकली की तरह है जो छत पर चिपक कर सोच रही है कि मेरी बदौलत ही यह छत टिकी हुई है। अहंकार की सोच मुर्गे की सोच की भांति होती है कि मैं जब तक बांग नहीं दूँगा, तब तक सवेरा नहीं होगा।

अहंकार की भावना मनुष्य को मनुष्यत्व के गुणों से रिक्त रखती है। जब व्यक्ति का मैं-पना समाप्त हो जाता है तो अहंकार भी धराशायी हो जाता है। तब उसके लिए परमात्मा का द्वार स्वतः खुल जाता है। बीज भूमि के अन्दर जाकर अपने अस्तित्व को मिटाता है, तभी वह वृक्ष का रूप धारण कर पाता है। अहंकार को लेकर यदि व्यक्ति परमात्मा के द्वार पर जाता है तब उसे वह द्वार बंद पाता है लेकिन जो अहंकार से शून्य हो कर मंदिर में प्रवेश करता है, वह पूर्णता को उपलब्ध हो जाता है।

अहंकार की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह स्वयं को ही बड़ा मानता है और बाकी सब को छोटा। स्वयं को सही मानता है और बाकी सब को गलत मानता है। अहंकार की खुराक ही यह है कि दूसरों को नीचा दिखाना और दूसरों को अपने से नीचा देखना। अहम् के शिखर पर बैठा व्यक्ति कभी भी सत्य के दर्शन नहीं कर पाता।

अहंकार मनुष्य को कठोर बनाता है और विनम्रता मनुष्य को मृदु बनाती है। जिस प्रकार एक बकरा जीवन पर्यंत मैं-मैं का ढिंढोरा पीटता है और अंत में जब उसकी आंत की धुनकी बनाकर रूई धुनी जाती है, तब वह तुई-तुई की आवाज़ निकालता है। उसी प्रकार जब तक अहंकार को चोट नहीं लगती, तब तक वह मैं-मैं की रट लगाए रखता है और चोट लगने पर तू ही तू को स्वीकार करता है। यह ‘मैं’ का भाव नरक का द्वार है। मान को मारना ही मार्दव को स्वीकार करना है। अहम् की मृत्यु ही सत्य का जीवन है। मनुष्य जितना सम्मान का खारा पानी पीता है, उतनी ही सम्मान की प्यास बढ़ती जाती है।

अहंकारी अपनी बात को तिल का ताड़ बनाकर कहता है, राई को पर्वत बनाकर कहता है और अपने छोटे से कृत्य पर मानपत्र की आकांक्षा करता है। वह मान पाने के लिए दान, परोपकार, सेवा आदि सभी काम किया करता है। यदि ‘नाम’ के लिए दान दिया जाता है तो पुण्य के द्वार से ‘मना’ का संदेश आ जाता है। अहंकारी को अपने नाम का गुणगान बहुत प्रिय होता है। वह अपनी इस प्रिय वस्तु को छोड़ना नहीं चाहता और जब उसके नाम का अपमान होता है, तो शोकाकुलित होकर अपमान की पीड़ा से पीड़ित होकर अपना जीवन व्यतीत करता है।

इसलिए भगवान महावीर ने इस पीड़ादायी भाव ‘मान’ का विसर्जन करने को कहा है, क्योंकि विनय सहित जीवन ही समस्त संपदा को पाने का अधिकारी होता है, मोक्ष का द्वार खोलने का अधिकारी होता है। कहा भी गया है - ‘विणओ मोक्ख द्वारो’

विनम्रता को स्वीकार करने वाला ही जीवन का उत्थान कर सकता है। अहंकार तो दूसरों को नीचे गिराता है और स्वयं ऊपर उठना चाहता है, पर उसे यह नहीं मालूम कि दूसरों को नीचे गिराने वाला स्वयं नीचे गिर जाता है।

अंत में उन्होंने कहा कि अहंकार बहुत सूक्ष्म है। इसे पकड़ना, अपने ज्ञान में लाना बहुत मुश्किल है। यह बहुत बड़ा ठग है। इसकी चाल-ढाल का ढंग अलग होता है, इसलिए इसे छोड़ने की कोशिश होनी चाहिए। जब अहंकार पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है, तब जीवन की वास्तविक यात्रा का शुभारंभ हो जाता है। अकड़कर तना रहने वाला व्यक्ति वृक्ष की भांति टूट जाता है और नमन करने वाला, झुकने वाली दूब की भांति सुरक्षित रहता है।

इसलिए भगवान महावीर ने जीवन के चमन को खिलाने के लिए प्रत्येक कार्यक्रम के प्रारंभ में मंगलाचरण के रूप में नमन को स्वीकार किया है। जिन्होंने अहंकार को छोड़ा और विनम्रता को धारण किया, वे ही मार्दव धर्म की मृदुता को उपलब्ध होकर परमात्मा बने हैं। जो अहंकारी हुए, वे रावण के समान अपमानित होकर दुर्गति के पात्र हुए। अतः लघुता में प्रभुता निवास करती है। इस बात को स्वीकार करें और अहंकार से मुक्त होकर अपना सुखमय जीवन व्यतीत करें।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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