व्यक्ति के पुजारी नहीं, आचरण के पुजारी बनो

व्यक्ति के पुजारी नहीं, आचरण के पुजारी बनो

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

जो आदमी इंद्रियों को कछुए की भांति सिकोड़ लेता है और कर्मों से रहित होता है, वही परमात्मा होने का अधिकारी है। परमात्मा केवलज्ञानी, वीतरागी और हितोपदेशी होता है। वह बाहरी ज्ञान के बल पर नहीं, अंतरंग से प्रस्फुटित ज्ञान के माध्यम से संसार को दिव्य संदेश देता है। जो परमात्मा होकर मुख से कथन करता है और किसी व्यक्ति, संप्रदाय या मानव विशेष को ही उपदेश देता है, समष्टि के प्राणी को नहीं, उसके अंदर स्वार्थ होता है, परिचय बनाने की भावना होती है। जो परमात्मा होकर संपूर्ण शरीर से दिव्य ध्वनि के माध्यम से उपदेश देता है, वह समष्टि के लिए निर्दोष आत्महित का उपदेश देता है। परमात्मा संसार की सारी वस्तुएं देखते और जानते हुए भी पाप से लिप्त नहीं होता, लेकिन मनुष्य एक वस्तु को देखकर भी राग से लिप्त हो जाता है और व्यर्थ की कल्पना करके पापास्रव करता है।

रागी जीव संसार का सृजन करता है, वीतरागी जीव स्वयं के संसार का विसर्जन करता है। परम वीतरागी के ज्ञान में संसार दर्पण के समान स्पष्ट झलकता है। जिस प्रकार दर्पण सभी वस्तुओं को देखते हुए भी उनसे परे होता है, उसी प्रकार परमात्मा भी संसार की समस्त वस्तुओं को देखते और जानते हैं, पर उनसे अलिप्त रहते हैं, परे रहते हैं। वे सर्वज्ञ होते हुए भी आत्मज्ञ होते हैं।

गृहस्थ तन की आवश्यकता को पूरा करता है, संत तन की नहीं, मन की आवश्यकताओं को पूरा करता है। परमात्मा इन सब आवश्यकताओं से परे होता है। इसलिए वे आहार भी नहीं करते। भोजन करने वाला सांसारिक प्राणी होता है। परमात्मा तो भूख, प्यास, जन्म, बुढ़ापा, विस्मय, आरत, खेद, रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिंता, पसीना, राग, द्वेष और मरण - इन 18 दोषों से रहित होता है। ऐसे परमात्मा की आराधना करने से व्यक्ति परमात्मा बनता है। कर्म रहित परमात्मा ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

जैन दर्शन व्यक्ति का पुजारी नहीं, आचरण का पुजारी है। नाम को पकड़ने वाला मर जाता है, गुणों को पकड़ने वाला तर जाता है। नाम को नहीं, अनाम जिनेंद्र भगवान के गुणों को प्रणाम करें। अनाम कभी भी नामधारी अर्थात सांसारिक नहीं होता। इसलिए जैन दर्शन अवतारवाद को नहीं स्वीकार करता। कोई भी परमात्मा मोक्षधाम से जीव के कल्याण के लिए धरती पर नहीं आते, क्योंकि वे पाप कर्मों से मुक्त हो चुके हैं। एक बार दूध का घी बन जाता है तो वह पुनः दूध नहीं बनता। परमात्मा के स्वरूप को जानें एवं स्वयं को पहचानें, ताकि भीतर का परमात्मा प्रकट हो सके।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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