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Showing posts from December, 2020

सादा जीवन उच्च विचार

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज सादा जीवन उच्च विचार मनुष्य के सच्चे आभूषण दो हैं - विचारों में ऊँचाई और व्यवहार में सादगी। विचार चरित्र का निर्माण करते हैं। यदि आप सच्चे अर्थों में सुखी होना चाहते हैं तो व्यवहार में सादगी लाकर दूसरों का दुःख दूर करते जाइए। इस्लाम धर्म की दो बातें बहुत प्रशंसनीय व अनुकरणीय हैं - अमीरी में सादगी और गरीबी में उदारता। यदि आप सादगी से जीना चाहते हैं तो किसी चीज में पैसा लगाने से पहले स्वयं से दो प्रश्न पूछो। 1. क्या मुझे वास्तव में इस वस्तु की आवश्यकता है ? 2. क्या इसके बिना भी मेरा काम चल सकता है ? जो धन आपके पास है उसका मात्र भोग मत कीजिए अपितु उसका भाग करके उससे दूसरों की मदद कीजिए एवं उसका त्याग करके जीवन का शृंगार कीजिए। मुगल-इतिहास की एक प्रेरणास्पद घटना है। एक बार मुहम्मद पैगम्बर साहब अपने लम्बे प्रवास से लौटकर मदीना पहुँचे। मदीना पहुँचते ही वे सीधे अपनी पुत्री फातिमा से मिलने चले गए। जब वे बेटी के घर तक पहुँचे तो उन्होंने देखा कि बेटी के मकान के द्वार पर सुन्दर और बहुमूल्य रेशमी पर्दा लगा हुआ है। उन्होंने पर्दे को थोड़ा सा हटाकर भीतर झांका तो देख...

प्राणियों का वास्तविक बंधु धर्म है

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज प्राणियों का वास्तविक बंधु धर्म है महानुभावों! प्राणियों का वास्तविक बंधु धर्म है। असली धर्म वही है जो मित्र के समान प्राणी मात्र का उद्धार करे। इस धर्म का प्रारम्भ त्याग से होता है। अतः हमें यत्नपूर्वक त्यागी जनों की संख्या में वृद्धि करने के लिए श्रावकों को प्रेरणा देनी चाहिए जो स्वयं के उद्धार के साथ-साथ संसार के उद्धार का माध्यम बने। अधिक ज्ञान की नहीं बल्कि त्याग की महिमा है। अतः अल्प त्यागी भी सम्मान के पात्र होते हैं। श्रमण संस्कृति त्यागियों की संस्कृति है। यह एक वास्तविकता है कि जो व्यक्ति त्याग की ओर अग्रसर होता है वही अपनी आत्मा का उद्धार कर सकता है। आगे मुनि श्री ने कहा कि धर्म के दो मार्ग हैं - प्रवृति और निवृति। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार प्रवृति और निवृति की राह पर चल कर कल्याण मार्ग का अनुगमन करना चाहिए। एक गृहस्थ पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सकता तो प्रवृति मार्ग पर चले और साधु को घर त्याग कर निवृति मार्ग को अपनाना चाहिए। अहिंसा का पथ धर्म का प्राण है। यही वह गुण है जो धर्म को जीवित रखता है अतः धर्म की राह पर चलने वालों को अ...

कषाय

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज कषाय कषाय किसे कहते हैं ? मानव का सबसे बड़ा शत्रु कषाय है जो आत्मा को कसे अर्थात् दुःख दे उसे ‘कषाय’ कहते हैं। कषाय के चार भेद हैं - 1. क्रोध 2. मान 3. माया 4. लोभ इनमें क्रोध और मान द्वेष रूप है तथा माया और लोभ राग रूप है। क्रोध - गुस्सा करना क्रोध कहलाता है। क्रोध विचारों की एक ऐसी विकृति है, जिसके कारण व्यक्ति का विवेक समाप्त हो जाता है, भले बुरे की पहचान नहीं रहती। यदि कोई हितैषी या पूज्य पुरुष भी बीच में आए तो व्यक्ति उसे भी भला-बुरा कहने लगता है। यदि जिस पर क्रोध आ रहा है उस का बुरा न हो पाए तो स्वयं बहुत दुःखी होता है और अपने ही अंगों का घात करने लगता है। क्रोध के परिणामस्वरूप जीव को नरक गति की प्राप्ति होती है। जहाँ क्रोध है, वहाँ बहुत दुःख भोगना पड़ता है। असफलता मिलने पर या अपनी इच्छानुसार कार्य न होने पर या इसने मेरा बुरा किया ऐसा मानने पर मन में क्रोध पैदा होता है। क्रोध से स्वयं की ही हानि होती है अतः हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। मान - घमंड करना मान कहलाता है। यह घमंड कुल, जाति, ताकत, शरीर, धन, प्रतिष्ठा, ज्ञान और तप, इन आठ बातों को लेकर ...

करें क्रोध पर क्रोध

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज करें क्रोध पर क्रोध क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोध स्वाभवता, मान प्रत्ये तो दीनपणा नुं मानजो। माया प्रत्ये माया साभी भाव नी, लोभ प्रत्ये नाहीं लोभ समान जो।। महानुभावों! क्रोध किस पर करना है ? स्वयं पर या दूसरे पर ? क्रोध तो करना ही है। यह तो हमारा स्वभाव बन चुका है। दूसरों पर क्रोध करते हैं तो पागलपन कहलाता है और स्वयं पर करते हैं तो बुद्धि का दीवालियापन माना जाता है। अगर तुम्हें क्रोध करना ही है तो अपने क्रोध पर ही क्रोध करो। यदि तुम सोचते हो कि दूसरों पर क्रोध करके उनको नुकसान पहुँचा सकते हो तो यह सोच वैज्ञानिक नहीं है। इस संबंध में अभी तक सारा वैज्ञानिक अन्वेषण यही कहता है कि दूसरों पर क्रोध करके मनुष्य केवल दूसरे को ही नहीं, स्वयं को भी हानि पहुँचाता है। प्रसन्न रहने से, मुस्कुराने से, हंसने से हमारी ऊर्जा बढ़ती है और क्रोध करने से ऊर्जा खर्च होती है। क्रोध करते समय हम होश खो बैठते हैं क्योंकि होश में हों तो हम क्रोध कर ही नहीं सकते पर यदि उस समय हमारे अन्दर स्वयं का विश्लेषण करने का थोड़ा सा भी विवेक कायम है तो हम स्वयं ही जान जाएंगे कि हमने कितनी ...

गतियाँ

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज गतियाँ जीव चार गतियों में जन्म लेता है - मनुष्य गति, तिर्यंच गति, नरक गति और देव गति। पुत्र - पिताजी आज मंदिर में सुना था कि ‘‘चारों गति के माहि प्रभु दुःख पायो मैं घणों।’’ ये चारों गतियाँ क्या हैं, जिनमें दुःख ही दुःख है ? पिता - बेटा गति तो जीव की अवस्था-विशेष को कहते हैं। जीव संसार में चार अवस्थाओं में पाए जाते हैं। उन्हें चार गतियां कहते हैं। जब यह जीव अपनी आत्मा को पहिचान कर उसकी साधना करता है तो चतुर्गति के दुःखों से छूट जाता है और अपना अविनाशी पद पा लेता है, उसे मोक्ष कहते हैं। पुत्र - ये चार गतियाँ कौन सी हैं ? पिता - मनुष्य, तिर्यंच, नरक और देव। पुत्र - मनुष्य तो हम तुम भी हैं न! पिता - हम मनुष्य गति में हैं। अतः मनुष्य कहलाते हैं। जब कोई जीव कहीं से मरकर मनुष्य गति में जन्म लेता है अर्थात् मनुष्य शरीर धारण करता है तो उसे मनुष्य कहते हैं। पुत्र - अच्छा! तो हम मनुष्य गति के जीव हैं ? गाय, भैंस, घोड़ा आदि किस गति के हैं ? पिता - ये तिर्यंच गति के जीव हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, कीड़े-मकौड़े, हाथी, घोड़े, कबूतर, मोर आदि पशु-पक्षी जो तु...

जहाँ सम्पत्ति वहाँ विपत्ति

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज जहाँ सम्पत्ति वहाँ विपत्ति सम्पत्ति, मन, तृष्णा और विपत्ति इन चार शब्दों में यह कहावत स्पष्ट होती है। सम्पत्ति का मन से और तृष्णा का विपत्ति से गहरा सम्बन्ध है। यदि मानव इससे बचना चाहे तो संतोष इसका पथ्य है। जैसे सरोवर में जल की अधिकता से कमल नाल विस्तीर्ण होती है और जल की अल्पता से कुम्हला जाती है। ऐसे ही सम्पत्ति रूपी जल की अधिकता से विपत्ति की कमल नाल विस्तीर्ण होती है। जो मेरा है सो मेरा है और तेरा भी मेरा है। इस दानवी भावना के स्थान पर ‘जो मेरा है सो मेरा है और जो तेरा है वो तेरा है’ ऐसी मानवीय-भावना द्वारा मन को भावित करना चाहिए। यदि आप निज-सुख की प्राप्ति हेतु दूसरों का अहित करते हैं तो सुख के बदले में दुःख ही हाथ आता है। एक छोटे कस्बे में दो मित्र थे। वे दूध और पानी की भाँति एक दूसरे की जान थे। उनकी आदर्श मित्रता की चर्चा गाँव भर में हुआ करती थी। एक बार वे दोनों धन कमाने का लक्ष्य बनाकर घर से निकले। पैदल यात्रा थी, जंगल का रास्ता था। एक दिन मार्ग में चलते हुए वे दोनों विश्राम हेतु एक वृक्ष के नीचे रुके। अचानक उनकी नजर सामने चमचमाती किसी चीज पर पड...

घमंडी का सिर नीचा

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज घमंडी का सिर नीचा घमण्डी व्यक्ति कमान से छोड़े हुए तीर के समान है जो थोड़ी देर हवा में उड़कर धरती पर गिर जाता है। आपकी नम्रता आपका कवच है। इस कवच में तनाव के तीर चुभ नहीं सकते। कोई इस कवच को चाहे कितने कटु वचनरूपी तीर मारे, आप इस कवच को कभी न उतारें। नम्रता आपके जीवन को निश्चित रूप से दिव्यता की ओर ले चलेगी। अभिमानी बनकर ‘ऊँचाई’ हासिल करना कदाचित् संभव हो सकता है किन्तु नम्रता के बिना ‘अच्छाई’ प्राप्त करना नितान्त असंभव है। ‘‘कबिरा गर्व न कीजिए, कबहुँ न हँसिए कोय।  अबहुँ नाव समुद्र में, का जाने का होय।’’ आप यह भूल जाएँ कि जो कुछ आपके पास है वह पुण्य की देन है। पुण्य का अहंकार करना, उस प्राप्त योग्यता को नष्ट करने का कारण बन सकता है। बात उस समय की है जब अवन्तिका नगरी का गौरव सेठ उदयमल थे जो राज्य के पुराने जाने-माने सेठों में गिने जाते थे। उन्होंने ऐसे सदावर्त खोल रखे थे, जहाँ नित्य-प्रति अनेक भिक्षुओं की भीड़ लगी रहती थी। कभी भी किसी टोली की झोली वहाँ से खाली नहीं लौटी थी। जब सेठ उदयमल भिक्षुकों की झोली में अन्न, वस्त्र आदि डालते थे तब साथ ही अपने ह...

उत्तम मार्दव : मान कषाय को विगलित करने का पर्व

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मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज उत्तम मार्दव : मान कषाय को विगलित करने का पर्व प्रायः देखा जाता है कि हमारे मान कषाय को दो कारणों से पोषण मिलता है। एक तो रूप का घमंड और दूसरा रुपए का। अरे! जिस रूप को देख कर तुम इतना इतरा रहे हो वह तो हर पल क्षीण होता जा रहा है। कुछ समय बाद तो तुम स्वयं ही अपना चेहरा नहीं पहचान पाओगे।  रुपया तो आज तक किसी का न हुआ है और न होगा। चंचल लक्ष्मी का क्या भरोसा ? कब उठ कर कहाँ चली जाए ? आज तुम्हारे पास है तो उसका उपभोग कर लो या दान कर दो वरना इसका नाश तो होना निश्चित ही है। मान हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। यह अपने साथ और भी कई शत्रुओं को लाता है। लालच, स्वार्थ, असत्य इसके पीछे पीछे चले आते हैं। एक बार जब पति पत्नी खाना खाने मेज़ पर बैठे तो पत्नी ने कहा कि सुनो जी! मैंने आज रसगुल्ले बनाए हैं। हम दोनों खाना खाने के बाद खाएंगे, खा कर बताना कैसे बने हैं। वाह! आज तो मज़े ही आ गए। दिखाओ तो ज़रा। पति ने देखा - देखने में तो बहुत अच्छे लग रहे हैं। गिन कर देखा तो 13 थे। पत्नी ने भी देखा और बोली कि देखो जी! मैं सुबह से इन्हें बनाने में लगी हुई हूँ। 7 रसगुल्ले मैं ख...