प्राणियों का वास्तविक बंधु धर्म है
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
प्राणियों का वास्तविक बंधु धर्म है
महानुभावों! प्राणियों का वास्तविक बंधु धर्म है। असली धर्म वही है जो मित्र के समान प्राणी मात्र का उद्धार करे। इस धर्म का प्रारम्भ त्याग से होता है। अतः हमें यत्नपूर्वक त्यागी जनों की संख्या में वृद्धि करने के लिए श्रावकों को प्रेरणा देनी चाहिए जो स्वयं के उद्धार के साथ-साथ संसार के उद्धार का माध्यम बने। अधिक ज्ञान की नहीं बल्कि त्याग की महिमा है। अतः अल्प त्यागी भी सम्मान के पात्र होते हैं।
श्रमण संस्कृति त्यागियों की संस्कृति है। यह एक वास्तविकता है कि जो व्यक्ति त्याग की ओर अग्रसर होता है वही अपनी आत्मा का उद्धार कर सकता है। आगे मुनि श्री ने कहा कि धर्म के दो मार्ग हैं - प्रवृति और निवृति। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार प्रवृति और निवृति की राह पर चल कर कल्याण मार्ग का अनुगमन करना चाहिए। एक गृहस्थ पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सकता तो प्रवृति मार्ग पर चले और साधु को घर त्याग कर निवृति मार्ग को अपनाना चाहिए।
अहिंसा का पथ धर्म का प्राण है। यही वह गुण है जो धर्म को जीवित रखता है अतः धर्म की राह पर चलने वालों को अहिंसा को अपने जीवन में उतारना चाहिए। जो व्यक्ति जितने अंशों में अहिंसा को अपने जीवन में उतारेगा, उसका उतना ही कल्याण होता चला जाएगा।
मुनि श्री कहते हैं कि पुरुष व स्त्री दोनों को धर्म के द्वारा आत्म-कल्याण को अपने जीवन का उद्देश्य बनाना चाहिए। भारतीय साहित्य में कहीं लिख दिया गया कि ढोर, गँवार, शुद्र, पशु, नारी; ये सब ताड़न के अधिकारी। तो जैसा शाब्दिक अर्थ दिखाई देता है, वैसा नहीं समझना चाहिए। उनकी भावना स्त्रियों को आदर्श बनाने की ही रही होगी क्योंकि हमारा भारतीय इतिहास हर क्षेत्र में उच्च आदर्श स्थापित करने वाली स्त्रियों से भरा हुआ है। वे अहिंसा और प्रेम की प्रतिमूर्ति होते हुए भी वीरता में किसी से कम नहीं होती।
आगे मुनि श्री ने कहा कि यह धर्म उन तीर्थंकरों, ऋषि-मुनियों का धर्म है जिनको आगम के अनुसार राग-द्वेष व हिंसा की अणुमात्र भी आज्ञा नहीं दी गई। धर्म रूपी रथ को चलाने के लिए गृहस्थ व मुनि, नदी के उन दो तटों के समान हैं जो नदी के जल को मर्यादा में रखते हुए समुद्र तक पहुँचने की यात्रा को सुगम बनाते हैं। जब तक नदी दोनों तटों के बंधन में बहती रहती है तभी तक उसका अपने गन्तव्य तक पहुँचना संभव होता है। यदि वह उच्छृंखल होकर तटों की मर्यादा को तोड़ कर, बंधन से मुक्त हो कर बहने लगे तो विनाश-लीला प्रारंभ हो सकती है। ठीक इसी प्रकार जब तक गृहस्थ और मुनि रूपी दो तटों के बीच में संयम की नदी बहती है और उसमें जीव तैरता रहता है तब तक ही स्वहित व परहित का निर्वाह हो सकता है।
आगे मुनि श्री ने उपस्थित समुदाय को नेक सलाह देते हुए कहा कि यदि हमारे भीतर किसी को अमृत पिलाने का सामर्थ्य नहीं है तो किसी को विष पिलाने की धृष्टता भी न करें। यदि हम किसी की राह में गुलाब नहीं बिखेर सकते तो कोई बात नहीं पर काँटे तो न बिछाएं। यदि हम किसी के जख्मों पर मरहम नहीं लगा सकते तो उतनी हानि नहीं है पर किसी को लाठी मारकर ज़ख्म देने का पाप न करें। मन में यह भावना दृढ़ता से बिठा लें कि उपकार न करें तो अपकार भी न करें।
धर्म शाश्वत होता है। वह किसी विशेष स्थान या काल के अनुसार परिवर्तित नहीं होता। हम कहीं भी अपने धर्म का पालन कर सकते हैं, चाहे हम रेल के डिब्बे में बैठे हों या मंदिर के प्रांगण में, पर्वत पर खड़े हों या वन में। कोई विशेष स्थान धर्म के पालन में बाधक नहीं हो सकता क्योंकि धर्म प्राणियों का वास्तविक बंधु है जो हर स्थान पर उनके साथ रहता है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
Comments
Post a Comment