जहाँ सम्पत्ति वहाँ विपत्ति
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
जहाँ सम्पत्ति वहाँ विपत्ति
सम्पत्ति, मन, तृष्णा और विपत्ति इन चार शब्दों में यह कहावत स्पष्ट होती है। सम्पत्ति का मन से और तृष्णा का विपत्ति से गहरा सम्बन्ध है। यदि मानव इससे बचना चाहे तो संतोष इसका पथ्य है।
जैसे सरोवर में जल की अधिकता से कमल नाल विस्तीर्ण होती है और जल की अल्पता से कुम्हला जाती है। ऐसे ही सम्पत्ति रूपी जल की अधिकता से विपत्ति की कमल नाल विस्तीर्ण होती है।
जो मेरा है सो मेरा है और तेरा भी मेरा है। इस दानवी भावना के स्थान पर ‘जो मेरा है सो मेरा है और जो तेरा है वो तेरा है’ ऐसी मानवीय-भावना द्वारा मन को भावित करना चाहिए। यदि आप निज-सुख की प्राप्ति हेतु दूसरों का अहित करते हैं तो सुख के बदले में दुःख ही हाथ आता है।
एक छोटे कस्बे में दो मित्र थे। वे दूध और पानी की भाँति एक दूसरे की जान थे। उनकी आदर्श मित्रता की चर्चा गाँव भर में हुआ करती थी। एक बार वे दोनों धन कमाने का लक्ष्य बनाकर घर से निकले। पैदल यात्रा थी, जंगल का रास्ता था। एक दिन मार्ग में चलते हुए वे दोनों विश्राम हेतु एक वृक्ष के नीचे रुके। अचानक उनकी नजर सामने चमचमाती किसी चीज पर पड़ी। जब उन्होंने गौर से देखा तो मालूम हुआ कि सोने की ईंट पड़ी है। उसे देखकर दोनों के चेहरे प्रसन्नता से खिल गए और उनकी आँखों की चमक बढ़ गई।
वे आपस में कहने लगे कि हम कितने भाग्यशाली हैं, जिस लक्ष्य को लेकर घर से चले थे, वह कितनी शीघ्रता से पूरा हो गया। वैसे जब हम गाँव से चल रहे थे तब शकुन अच्छे नहीं थे और परदेश जाने की योजना बनाई तो माता-पिता मना कर रहे थे पर यह कितना अच्छा हुआ। हमें न मेहनत करनी पड़ी, न अधिक समय लगाना पड़ा। सच ही कहा है - भगवान भी जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है।
सोने की ईंट को बड़ी हिफाज़त से संभालते हुए वे दोनों वापस आने लगे। मार्ग में एक गाँव आया जहाँ वे विश्राम के लिए रुके। वहाँ मिठाई की दुकान को देखकर दोनों एक साथ बोल पड़े - ‘‘अरे भाई! सोने की ईंट मिलने की खुशी में मुँह मीठा कर लेते है।’’ तत्पश्चात् एक मित्र फौरन मिठाई लेने चला गया और दूसरा उसके इंतजार में एक पेड़ के नीचे बैठ गया।
कहते हैं कि वस्तु की प्राप्ति के बाद मन का घोड़ा न्याय और भलाई को छोड़कर कब अन्याय और बुराई के मार्ग पर चल पड़ता है, इसका बोध स्वयं उसे भी नहीं रह पाता। सम्पत्ति के आते ही नियति में नीयत के रंग कितनी जल्दी बदल जाते है। इसका अंदाजा आँका नहीं जा सकता। जिस सम्पत्ति का प्रयोग विपत्ति से मुक्त होने के लिए किया जा सकता है या जीवन जीने के लिए किया जा सकता है, वह सम्पत्ति स्वयं विपत्ति का कारण बन जाती है। काश! इस बात को मनुष्य पहले जान पाता।
मिठाई की दुकान तक पहुँचने से पूर्व मार्ग में चलते-चलते उस मित्र ने सोचा - सोने की ईंट को दोनों के बीच बाँटने के लिए आधा-आधा करना पड़ेगा। वैसे आधी ईंट भी कम नहीं है। उससे सारी जिंदगी गुजर सकती है किन्तु क्यों न मैं एक ऐसी तरकीब अपनाऊँ जिससे ईंट का विभाजन करना ही न पड़े?
यह सोचकर उसने मिठाई खरीदकर उसमें से आधी मिठाई में ज़हर मिला दिया। मन के विचारों का संप्रेषण इतनी निर्बाध गति से होता है कि अक्सर मनुष्य उसे पकड़ नहीं पाता।
इधर पेड़ के नीचे बैठा हुआ दूसरा मित्र भी यही सोच रहा था। चाहे जितना कपट-जाल रचना पड़े किन्तु ईंट को पूर्ण रूप से हासिल करना ही चाहिए। ऐसा वह सोच ही रहा था कि सामने से मित्र आता हुआ दिखाई दिया।
मित्र को देखते ही वह बनावटी स्वर में बोला - ‘‘अच्छा मित्र! तुम मिठाई ले आए पर मुझे बहुत प्यास लगी है, अतः मिठाई खाने से पूर्व पानी का इन्तजाम हो जाए तो अच्छा है।’’ आसपास के लोगों से पूछताछ करने पर उन्हें पता लगा कि यहाँ से दक्षिण दिशा में थोड़ी दूरी पर एक कुँआ है।
दोनों ने सोचा कि वहाँ जाकर पानी पी लेंगे और वृक्ष की छाया में बैठकर मिठाई खा लेंगे। मिठाई लाने वाला मित्र कुँए के पास जाकर जैसे ही पानी निकालने लगा मौका देखकर दूसरे मित्र ने उसे धक्का दे दिया। बेचारा कुएँ में गिर पड़ा और वहीं उसके प्राण निकल गए।
दूसरे मित्र ने अब चैन की सांस ली और अपने कपट-पूर्ण दांव की सफलता पर प्रसन्न होकर सोचा कि अब पूरी ईंट मेरी है। न अब किसी प्रकार का कोई ख़तरा है और न किसी को देने की चिन्ता है। मैं अकेला ही अब खुशियाँ मनाऊँगा और मिठाई भी पेट भरकर खाऊँगा।
उसने आराम से बैठकर मिठाई खाई। इस संसार में जैसा व्यक्ति सोचता है और जैसा चाहता है वैसा यहाँ नहीं होता। होता वही है जो हमने किया है। मिठाई खाते ही थोड़ी देर में ज़हर से कहर ढा गया। उसका जी घबराने लगा और उसे चक्कर आने लगा। तुरन्त बेहोशी ने उसे घेर लिया और देखते-देखते कुछ पलों में सारा खेल खत्म हो गया। इसलिए कहा है -
‘‘जहाँ सम्पत्ति वहाँ विपत्ति’’
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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