गतियाँ

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

गतियाँ

जीव चार गतियों में जन्म लेता है - मनुष्य गति, तिर्यंच गति, नरक गति और देव गति।

पुत्र - पिताजी आज मंदिर में सुना था कि ‘‘चारों गति के माहि प्रभु दुःख पायो मैं घणों।’’ ये चारों गतियाँ क्या हैं, जिनमें दुःख ही दुःख है?

पिता - बेटा गति तो जीव की अवस्था-विशेष को कहते हैं। जीव संसार में चार अवस्थाओं में पाए जाते हैं। उन्हें चार गतियां कहते हैं। जब यह जीव अपनी आत्मा को पहिचान कर उसकी साधना करता है तो चतुर्गति के दुःखों से छूट जाता है और अपना अविनाशी पद पा लेता है, उसे मोक्ष कहते हैं।

पुत्र - ये चार गतियाँ कौन सी हैं?

पिता - मनुष्य, तिर्यंच, नरक और देव।

पुत्र - मनुष्य तो हम तुम भी हैं न!

पिता - हम मनुष्य गति में हैं। अतः मनुष्य कहलाते हैं। जब कोई जीव कहीं से मरकर मनुष्य गति में जन्म लेता है अर्थात् मनुष्य शरीर धारण करता है तो उसे मनुष्य कहते हैं।

पुत्र - अच्छा! तो हम मनुष्य गति के जीव हैं? गाय, भैंस, घोड़ा आदि किस गति के हैं?

पिता - ये तिर्यंच गति के जीव हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, कीड़े-मकौड़े, हाथी, घोड़े, कबूतर, मोर आदि पशु-पक्षी जो तुम्हें दिखाई देते हैं, वे सभी तिर्यंच गति में आते हैं। जब कोई जीव मरकर इनमें पैदा होता है तो वह तिर्यंच कहलाता है।

पुत्र - जब मनुष्यों को छोड़ कर दिखाई देने वाले सभी तिर्यंच हैं तो फिर नारकी कौन हैं?

पिता - इस पृथ्वी के नीचे सात नरक हैं। वहाँ का वातावरण बहुत ही कष्टप्रद है। वहाँ पर कहीं शरीर को जला देने वाली भयंकर गर्मी और कहीं गला देने वाली भयंकर सर्दी पड़ती है। भोजन, पानी का सर्वदा अभाव है। वहाँ जीवों को भयंकर भूख, प्यास की वेदना सहनी पड़ती है। वे लोग तीव्र क्रोधी होते हैं, आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। नरक में रहने वाले जीवों को नारकी कहते हैं।

पुत्र - और देव?

पिता - जो जीव मरकर देवों में जन्म लेते हैं, उन्हें देव गति के जीव कहते हैं। जैसे पाप का फल भोगने का स्थान नरकादि गति है उसी प्रकार जो जीव पुण्य करता है, उनका फल भोगने का स्थान देवगति है। देवगति में मुख्यतः भोग सामग्री रहती है। 

पुत्र - अच्छी गति कौन सी है?

पिता - चारों गति में दुःख ही हैं तो फिर ये गतियाँ अच्छी कैसी होंगी? ये चारों संसार में ही भ्रमण कराती हैं। इसे छोड़कर जो मुक्त हैं वे सिद्ध जीव ‘पंचमगति’ वाले हैं। एकमात्र पूर्ण आनन्दमय सिद्धगति अर्थात् मोक्ष ही है।

पुत्र - मनुष्य गति को अच्छी कहो न! क्योंकि इससे ही मोक्ष पद मिलता है।

पिता - यदि यह गति अच्छी होती तो सिद्ध जीव इसका भी परित्याग क्यों करते? अतः चतुर्गति का परिभ्रमण छोड़ना ही अच्छा है।

पुत्र - जब इन गतियों का चक्कर छोड़ना ही अच्छा है तो फिर यह जीव इन गतियों में घूमता क्यों है?

पिता - जब अपराध करेगा तो सज़ा भोगनी ही पड़ेगी न!

पुत्र - किस अपराध के फल से कौन सी गति प्राप्त होती है?

पिता- बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह रखने का भाव ही ऐसा अपराध है जिससे इस जीव को नरक जाना पड़ता है तथा भावों की कुटिलता अर्थात् मायाचारी, छल-कपट तिर्यंचायु बंध के कारण हैं। 

पुत्र - और मनुष्य तथा देव आयु?

पिता - अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह रखने का भाव और स्वभाव की सरलता मनुष्यायु के बंध का कारण है। इसी प्रकार पुण्यभाव की बहुलता देवायु के बंध का कारण है।

पुत्र - उक्त भाव, बंध के कारण होने से अपराध ही है तो फिर निरपराध दशा क्या है?

पिता - एक वीतराग भाव ही निरपराध दशा है, अतः वह मोक्ष का कारण है।

पुत्र - इन सब के जानने से क्या लाभ है?

पिता - हम यह जान गए हैं कि चारों गतियों में दुःख ही दुःख हैं, सुख नहीं हैं और चतुर्गति भ्रमण का कारण शुभाशुभ भाव है, इनसे छुटने का उपाय एक वीतराग भाव ही है। हमें वीतराग भाव प्राप्त करने के लिए सम्यग्दृष्टि, व्रती, महाव्रती अर्थात् मुनि बनने की साधना करनी चाहिए।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

Comments

Popular posts from this blog

निष्काम कर्म

सामायिक

नम्रता से प्रभुता