सार्थकता
सार्थकता
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)
जीव को मानव जीवन का मिलना एक अत्यंत दुर्लभ अवसर है। धर्म व अध्यात्म से इस अवसर का सदुपयोग करने की शिक्षा और प्रेरणा प्राप्त होती है। मनुष्य के समक्ष सदैव दो विकल्प उपस्थित रहते हैं - सत्य और असत्य के। सत्य की परिणति पुण्य में और असत्य की परिणति पाप में होती है।
असत्य ढलान की ओर ले जाता है और सत्य ऊँचाई की ओर। ढलान पर फिसलने का बचाव करने के लिए अधिक श्रम करना पड़ता है, पर ऊँचाई की ओर चढ़ना और भी कठिन है। एक-एक पग ध्यान से आगे बढ़ाना पड़ता है, क्योंकि नीचे गिरने और फिसल जाने का भय होता है। हमें मानव जीवन का सदुपयोग करके उसे सार्थक बनाना है।
जिसे अपना अंत सामने दिखता हो, वह संग्रह की प्रवृत्ति से दूर हो जाता है। उसके अंदर का अहंकार लुप्त हो जाता है। उसे सांसारिक पदार्थों से प्रतिष्ठा प्राप्त करने की अपेक्षा अपना जीवन अधिक मूल्यवान लगने लगता है। संसार में जितने पाप हो रहे हैं, उनका मूल कारण यही है कि वह अपनी मृत्यु को भूल गया है।
आज वैश्विक महामारी ने पूरे संसार को एक अवसर दिया है अपने अंत को याद रखने का। आज कोई भी नहीं कह सकता कि उसका जीवन सुरक्षित है। कोई महामारी कब किस माध्यम से उसे ग्रस लेगी, कहना कठिन है। हालांकि संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो आज भी इस सत्य को नहीं देख पा रहे हैं कि जीवन कितना क्षणभंगुर है! वे इसकी क्षणभंगुरता को असत्य मान कर चलते हैं, क्योंकि वे अभी रोगग्रस्त नहीं हुए हैं। उनका सत्ता और धन का लोभ अभी भी बना हुआ है। अभी भी मानव जीवन की सार्थकता को प्राथमिकता नहीं देते, उनकी प्राथमिकताओं में सांसारिक कामनाएं सबसे ऊपर हैं।
यह मानव का स्वभाव है, जो सदियों से विकसित और दृढ़ होता आ रहा है। यह इतनी सरलता से परिवर्तित नहीं होने वाला। विचारणीय यह है कि क्या संसार ऐसे ही चलता रहेगा और ईश्वर मनुष्य को बार-बार सुधरने का अवसर देता रहेगा? क्या मनुष्य भी ईश्वर के धैर्य को इसी प्रकार चुनौती देता रहेगा?
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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