नम्रता से प्रभुता

नम्रता से प्रभुता

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

नम्रता एक ऐसा अनुपम व दुर्लभ सद्गुण है, जिसे हमें अपने जीवन में अवश्य धारण करना चाहिए। नम्रता का अर्थ है कि अपने मन में ऐसे भाव लेकर जीना कि हम सब एक ही परमात्मा की संतान हैं। सभी के अंदर परमात्मा की शक्ति विद्यमान है। तभी हमारे मन में एक दूसरे के प्रति नम्रता के भाव आते हैं। हमारे अंदर का अहंकार समाप्त हो जाता है। फिर हम किसी को पीड़ा नहीं देते, क्योंकि हम जानते हैं कि संसार में सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव रखना चाहिए। दया का गुण प्रभु का दिया हुआ है। जब हमारे अंदर ऐसी आत्मिक नम्रता का विकास होता है, तब हमारे अंदर धन-पद-प्रतिष्ठा का अहंकार उत्पन्न नहीं हो सकता।

कहा जाता है कि जहां प्रेम है, वहां नम्रता है। क्योंकि प्रेम भाव में कभी क्रोध नहीं आता। जब किसी से प्रेम हो जाता है, तो व्यक्ति उसके सामने कठोर शब्द का उपयोग नहीं करता और न ही अपना अहंकार दिखाता है। हमें भी सभी से ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जैसे हम अपने परिचित लोगों से करते हैं। हमें अपने भीतर नम्रता का गुण लाने के लिए धर्मध्यान और अभ्यास करना चाहिए।

जब तक हम अपने अंदर स्थित प्रभु की ज्योति से जुड़ते हैं, तो हमारे मन में प्रेम, नम्रता और शांति का प्रवाह होता है। हम दूसरों की निस्वार्थ सेवा करते हैं ताकि उनके दुख और तकलीफ कम हो सकें। जीवन के तूफानी समुद्र में हम एक दीप-स्तंभ (लाइट हाउस) के समान बन जाते हैं। समुद्री तूफान के समय जब कोई जहाज़ रास्ता भटक जाता है, तो वह हमेशा दीप-स्तंभ की ओर देखता है। एक बार अंतर में प्राणों की ज्योति का अनुभव करने और यह एहसास करने के बाद कि हम प्रभु के अंश हैं, हम एक सच्चे इंसान बन जाते हैं। इसका प्रतीक बनकर एक प्रकाश स्तंभ की तरह दूसरों को सहारा देते हैं, उन्हें सही रास्ता दिखाते हैं। जो खुशी और दिव्यता का आनंद हमें ध्यान के अभ्यास के दौरान मिलता है, वह केवल उसी समय के लिए नहीं होता, बल्कि उसके बाद भी हमारे साथ बना रहता है। उसका हमारे दैनिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और हमारे आसपास के लोग भी इस नम्रता की भावना से अछूते नहीं रहते।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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