निष्काम कर्म

निष्काम कर्म

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

जो लोग निष्काम भाव से कर्म करते हुए अपने जीवन की बागडोर प्रभु के हवाले कर देते हैं, उन्हें विपरीत परिस्थितियां किंचित मात्र भी भयभीत नहीं कर पाती। चलिए एक छोटी सी कथा सुनाते हैं।

एक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ कहीं जा रहा था। रास्ते में वे दोनों एक बड़ी नदी को नाव द्वारा पार कर रहे थे। तभी अचानक तूफान आ गया। वह आदमी निडर था लेकिन उसकी पत्नी बहुत डरी हुई थी। नाव छोटी थी और तूफान भयंकर था। दोनों किसी भी पल डूब सकते थे, लेकिन वह आदमी निश्चल और शांत बैठा था, मानो कुछ नहीं होने वाला।

पत्नी ने पूछा - क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा? यह हमारे जीवन का आखिरी क्षण भी हो सकता है। ऐसा नहीं लगता कि हम किनारे सकुशल पहुंच पाएंगे। हमारी मौत निश्चित है। वह आदमी हंसा और एकाएक उसने अपनी कमर के पास खोंसे हुए चाकू को निकाल लिया। औरत बहुत परेशान हो गई। वह चाकू से क्या करेगा? आदमी चाकू को उस औरत के गर्दन के पास ले आया। इतने पास कि चाकू लगभग उसकी गर्दन को छू रहा था। अब उसने अपनी पत्नी से पूछा - क्या तुम्हें डर लग रहा है? पत्नी हंसी और बोली - जब चाकू तुम्हारे हाथ में है, तो कैसा डर? क्या मैं नहीं जानती कि तुम मुझे बहुत प्यार करते हो?

आदमी ने चाकू को वापस कमर में खोंसते हुए कहा - यही मेरा जवाब है। मैं जानता हूं कि भगवान हमें बहुत प्रेम करते हैं। यह तूफान उनके हाथ में है, इसलिए जो भी होगा अच्छा ही होगा। यदि हम तूफान से बचते हुए किनारे तक पहुंचेंगे तो बहुत अच्छा और यदि नाव तूफान के कारण पलट गई, तो हम दोनों तैर कर किनारे पर पहुंचने का प्रयास करेंगे। यदि इस प्रयास में हमारी मृत्यु भी हो गई, तो भी यह निश्चित जानो कि परमेश्वर ने हमारे लिए कुछ बेहतर ही सोच रखा होगा।

इस कथा से यही स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को हमेशा उस परम पिता परमेश्वर पर अपना विश्वास बनाए रखना चाहिए, जो हमारे संपूर्ण जीवन के रक्षक हैं।

निष्काम कर्म द्वारा सामाजिक समरसता एवं सहिष्णुता के लिए मनीषियों ने अनेक उपाय बताए, जिनका अनुसरण कर हम पुनः समाज को एक सूत्र में बांध सकते हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का जो मंत्र भारतीय संस्कृति ने दिया वह इसी का एक हिस्सा है। सबसे पहले इसे खुद पर लागू करना होगा। हमारे शरीर को हमारी ज्ञानेंद्रियां संचालित करती हैं। हम कुछ देखते हैं और मन उसे देखने को मना करता है। वह उसे अपराध बताता है। हमें अपनी आँखों के लिए सहिष्णु बनना चाहिए और तत्काल उस पाप-प्रवृत्ति से दृष्टि हटा लेनी चाहिए, क्योंकि दूसरा कोई भले ही न जान पाए कि हम क्या गलत कर रहे हैं, पर अपना मन हर काम के गलत और सही होने के बारे में अवश्य बताता रहता है।

इसकी सीधी-सी पहचान है कि जो काम हम खुले आम नहीं करते बल्कि चोरी से करते हैं, वह गलत है। यदि गलत न होता तो हम उसे सार्वजनिक रूप से करते। यही बात अन्य ज्ञानेंद्रियों पर भी लागू होती है। हम खुद मन और बुद्धि से एक सूत्र में नहीं रहेंगे, तो समाज को एक सूत्र में नहीं बांध सकते, क्योंकि जब खुद हमारे कर्म और चिंतन में विरोधाभास रहेगा, तो वही हमारी कार्य पद्धति में भी उतर जाएगा।

व्यक्ति समाज की सबसे छोटी इकाई है और समाज को उत्तम और आदर्शवादी बनने के लिए आलीशान मकान और भारी-भरकम भौतिक साधनों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सुसंस्कारित व्यक्ति का होना आवश्यक है। इतिहास पर नज़र डालें, तो गांधी जी ने ‘सादा जीवन उच्च विचार’ को अपना कर समाज को स्वच्छ और स्वस्थ किया। जो कार्य हमारे लिए ठीक नहीं, वह दूसरे के लिए भी ठीक नहीं। इस सोच को मजबूती से पकड़ने की आवश्यकता है। ‘येन केन प्रकारेण’ प्राप्त हुई उपलब्धि अनेक विकृतियों को जन्म देती है और तब समाज में विषमता, विषाक्तता और नफरत का माहौल बनने लगता है। अपने लाभ के लिए दूसरों का अहित करना दानवी प्रवृत्ति है, जो व्यक्ति समाज के लिए सहिष्णु नहीं होता, तो एक दिन ऐसा आ जाता है कि वह अपने परिवार के प्रति भी क्रूर हो जाता है और फिर उसका निजी जीवन कष्टदायी हो जाता है।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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