प्रेम की प्यास

प्रेम की प्यास

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

एक सम्राट को एक साधारण स्त्री से प्रेम हो गया। प्रेम तो बस प्रेम होता है। हो गया तो हो गया....। बादल पानी से भरे हुए हैं, अनुकूल हवाएं चल रही हैं तो बादल बरस गए। उन्हें भूमि से क्या लेना-देना? उनका काम तो मात्र बरसने का है। प्रेम का काम भी केवल किसी से जुड़ने का है। सम्राट सोच भी नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूँ? कौन, कब प्रेम में सोच समझ पाया है? जिसने सोच-विचार किया, वह प्रेम नहीं कर पाया।

तो सम्राट भी सोच नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? सम्राट महान है, संपन्न है, ऐश्वर्यवान है, विवेकवान है, समर्थवान है और स्त्री साधारण है। दासी की पुत्री है। साधारण का असाधारण से मेल कैसे हो सकता है? सम्राट को ऐसा महसूस हुआ कि यदि मैं इसके साथ प्रेम करता हूँ, तो यह मुझे धन्यवाद देगी, अनुग्रह से भरेगी, आनंदित भी होगी, एहसानमंद भी होगी। लेकिन प्रेम का धन्यवाद से क्या वास्ता? प्रेम का कर्तव्य से क्या संबंध?

यदि उसके अन्दर से हीन भावना न निकली, तो यह जीवन भर साथ रह कर भी प्रेम नहीं दे पाएगी। उसके मन में यह भावना बैठी रहेगी कि सम्राट् तो महान हैं और मैं तुच्छ स्त्री हूँ। वे क्षत्रिय हैं और मैं दासी की पुत्री हूँ। मैं साधारण से घर की लड़की हूँ। मैं सम्राट् से कैसे प्यार करूँ?

इसके माता-पिता तो प्रसन्न हो जाएंगे, भाई गद्गद् हो जाएंगे, रिश्तेदार आनन्दित हो जाएंगे, आस-पड़ोस के लोग भी खुश हो जाएंगे, लेकिन इसकी आत्मा तो प्रसन्न नहीं हो सकेगी।

उस स्त्री ने सम्राट् के प्रस्ताव का जो उत्तर दिया, वह समझने योग्य है।

उसने कहा - राजन्! यह जो आज मेरा रूप है, यह कल ढल जाएगा और उसके साथ ही तुम्हारा प्रेम भी विदा हो जाएगा। जो प्रेम और वासना के अन्तर के स्वरूप को जान लेता है, वह एक व्यक्ति के प्रति नहीं, समष्टि के प्रति प्रेम से भर जाता है।

अतः प्रेम की भावना को व्यापक व सर्वकालिक बनाओ, तात्कालिक नहीं।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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